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What is behaviour therapy, definition, types| व्यवहारचिकित्सा पद्धति का विस्तार से वर्णन करें।



उत्तर-व्यवहार चिकित्सा का अर्थ एवं स्वरूप (Meaning and Nature of Behaviour Therapy)—व्यवहार चिकित्सा (Behaviour Therapy) पद का सबसे पहले प्रयोग सन् 1953 में प्रकाशित एक शोधपत्र में किया गया। जिसे लिंडस्लेय, स्कीनर तथा सोलोमोन (Lindsley, Skinner and Solomon) ने लिखा गया था। इस पद का प्रयोग बाद में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक आइजन्क (Eysenck) ने जारी रखा। वर्तमान में इस पद का प्रयोग नैदानिक मनोविज्ञान (Clinical Psychology) में पर्याप्त रूप से किया जा रहा है। 'व्यवहार चिकित्सा' पद के स्थान पर कभी कभी "व्यवहार परिमार्जन (Behaviour Modification) पद का प्रयोग भी किया जाता है। इन दोनों को एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इन दोनों में अन्तर करने का प्रयास किया है। 'व्यवहार परिमार्जन' शब्द का प्रयोग करने वाले मनोवैज्ञानिक इस चिकित्सा का आधार स्कीनर द्वारा बताये गये नियमों या सिद्धांतों को मानते हैं। लेकिन जो मनोवैज्ञानिक इस चिकित्सा का आधार सामाजिक सीखना (Social Learning) तथा/ या संज्ञानात्मक सीखना (Cognitive Learning) मानते हैं ये 'व्यवहार चिकित्सा' (Behaviour Therapy) पद का प्रयोग अधिक करते हैं लेकिन इन दोनों पदों में यह अन्तर किसी प्रकार की समस्या पैदा नहीं करता। अतः एक दूसरे के लिये इन पदों का प्रयोग किया जा सकता है।

व्यवहार चिकित्सा (Behaviour Therapy) एक ऐसी प्रविधि है जिसमें मानसिक रोगों का उपचार कुछ ऐसी विधियों से किया जाता है जिसका आधार अनुबंधन (Conditioning) के क्षेत्र में विशेषकर पैवलय और स्किनर द्वारा तथा संज्ञानात्मक सीखने के क्षेत्र में किये गये प्रमुख सिद्धांत एवं नियम होते हैं।

ओल्प (Wolpe, 1969) ने व्यवहार चिकित्सा को ऐसे परिभाषित किया है, 'अप अनुकूलित व्यवहार को परिवर्तित करने के विचार से प्रयोगात्मक रूप से स्थापित अधिगम या सीखने के नियमों का उपयोग है। अपअनुकूलित आदतों को दुर्बल किया जाता है तथा उनका त्याग किया जाता है अनुकूलित आदतों की शुरुआत की जाती है तथा उन्हें सशक्त बनाया जाता है।

(Behaviour Therapy is the use of experimentally established principles of learning for the purpose of changing unadaptive behaviour. Unadaptive habits are weakened and eliminated, adaptive habits are initiated and strengthened-Wolpe(1969)

आइजैक (Eysneck) के अनुसार, “व्यवहार चिकित्सा मानव व्यवहार व संवेगों को सीखने के नियमों के आधार पर लाभदायक तरीकों में बदलाव लाने की कोशिश है।" 

उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि कुसमायोजित या अपअनुकूलित व्यवहार (Unadaptive Behaviour) के स्थान पर समायोजित या अनुकूलित व्यवहार (Adaptive. Behaviour) को सशक्त बनाने का प्रयास किया जाता है ताकि व्यक्ति सामान्य व्यवहार उचित ढंग से कर सकें। 

व्यवहार चिकित्सा के अन्तर्गत कुसमायोजित या अपअनुकूलित व्यक्ति (Maladjusted Person) के बारे में निम्नलिखित दो धारणाएँ (Assumptions) होती हैं :

(a) अपअनुकूलित या कुसमायोजित व्यक्ति (Maladjusted Person) उसे कहा जाता है जो जीवन की समस्याओं का सामना करने या उन्हें हल करने का सामर्थ्य किसी कारण से विकसित नहीं कर पाया या सीख नहीं पाया।

 (b) ऐसे व्यक्ति जो त्रुटिपूर्ण या दोषपूर्ण समायोजन पद्धतियाँ (Faulty Adjustment Patterns) सीख लेते हैं जो किसी न किसी प्रकार से पुनर्बलित (Reinforce) होकर स्वयं ही संपोषित (Maintain) होते रहते हैं या बने रहते हैं। 

व्यवहार चिकित्सा में अप अनुकूलित या कुसमायोजित व्यवहार (Maladaptive Behaviour) को बदलकर उसके स्थान पर अनुकूलित या समायोजित व्यवहार सिखाने का प्रयास किया जाता है।

व्यवहार चिकित्सा के प्रमुख नियम (Major Principles of Behaviour Therapy) - कुछ प्रमुख नैदानिक मनोवैज्ञानिकों जैसे फारकास (Farkas, 1980), रॉस (Ross, 1985), काजडिन (Kazdin, 1978) आदि ने अपने शोधों के आधार पर व्यवहार चिकित्सा कुछ निम्नलिखित सिद्धांतों (Principles) का प्रतिपाद किया :

(i) सामान्य व्यवहार और असामान्य व्यवहार में निरन्तरता (Continuity) होती है। सीखने के मौलिक नियम (Learning Principles) इन दोनों प्रकार के व्यवहारों अर्थात् सामान्य और असामान्य व्यवहारों पर लागू होते हैं। दूसरे शब्दों में इसी बात को हम ऐसे भी कह सकते हैं कि व्यक्ति अपअनुकूलित व्यवहार को उन्हीं मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सीखता है जिनके माध्यम से वह अनुकूलित व्यवहार को सीखता है।

(ii) व्यवहार चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति द्वारा स्पष्ट किये गये उपअनुकूलित व्यवहार को परिमार्जित (Modify) करना है। ऐसे व्यवहार से जुड़े संवेगों एवं संज्ञान (Cognition) पर भी प्रत्यक्ष रूप से ध्यान दिया जाता है।

(iii) व्यवहार चिकित्सा में रोगी के वर्तमान समस्याओं पर बल जाता है, न कि उसकी बाल्यावस्था की अनुभूतियों या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर (iv) व्यवहार चिकित्सा में उपचार के प्रयोगात्मक मूल्यांकन (Experimental Evaluation) के प्रति वचनबद्धता होती है। इसमें केवल उन्हीं प्रविधियों को सम्मिलित किया जाता है जिनकी वैज्ञानिक रूप से जाँच कर ली गई हो।

(v) व्यवहार चिकित्सा के अन्तर्गत बेशक चिकित्सक वैज्ञानिक रूप से जाँच करके परखी गई प्रविधियों को ही अपनाता है, फिर भी वह अपनी सेवा प्रदान करने में नैतिक नियमों एवं नैदानिक सिद्धांतों के अनुरूप निर्णय लेने के लिये बाध्य होता है। व्यवहार चिकित्सा में समस्या केन्द्रित प्रविधियों (Problem Focused Techniques) पर अधिक बल डाला जाता है।

(vi) व्यवहार चिकित्सा की जितनी भी प्रविधियाँ (Techniques) है प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के सैद्धांतिक मूल तथा आनुभविक तथ्यों (Empirical Findings) पर आधारित हैं। प्रारम्भ के दिनों में व्यवहार चिकित्सा मुख्यतः सीखने के सिद्धांतों के तथ्यों पर आधारित था परन्तु आजकल इसका आनुभविक आधार (Empirical Foundations) अधिक व्यापक है।

व्यवहार चिकित्सा की विशेषताएँ (Characteristics of Behaviour Therapy) – कास्टेल (Costell) ने व्यवहार चिकित्सा की निम्नलिखित विशेषताओं की चर्चा की है : 

1. इस चिकित्सा पद्धति में मुख्यतः यही प्रयास किया जाता है कि बच्चा अपनी पुरानी आदतों का त्याग करता जाये और नई समायोजनापूर्ण आदतों को सीख ले। 

2. व्यवहार उपचार पद्धति हल (Hull), स्किनर (Skinner) तथा मॉबरर (Mowerer) के सीखने पर आधारित है।

3. रोगी के व्यवहार के पीछे या तो गलत सीखे हुए व्यवहार है या गलत व्यवहार को सीखने  में असफलता है। 

4. व्यवहारों को सीखने पर व्यक्तिगत विभिन्नताओं (Individual Differences) का प्रभाव पड़ता है।

5.तंत्रिका ताप-प्रतिक्रियाएं किसी भी आयु स्तर पर पैदा हो सकती है। यदि असामान्य व्यवहार को पैदा करने वाली परिस्थितियों को ही समाप्त कर दिया ये भी स्वयं ही समाप्त हो जायेगा।

6 असामान्य व्यवहार का अधिगम (Learning) केवल बाल्यकाल (Childhood) में ही नहीं होता बल्कि बाद के आयु वर्ग में भी हो सकता है।

7. इस पद्धति में चिकित्सक रोग के विकास की ओर ध्यान नहीं देता, बल्कि वर्तमान असमायोजित व्यवहार विशेषताओं को दूर करने पर देता है।

रिम तथा मास्टर्स (Rimm and Masters) ने भी व्यवहार चिकित्सा की कुछ विशेषताओं की चर्चा की है जो कि निम्नलिखित हैं:

 (1) व्यवहार चिकित्सा पद्धति में स्पष्ट रूप से परिभाषित विशिष्ट लक्ष्यों का निर्धारण किया  जाता है।

(ii) यह पद्धति प्राचीन विशेषक सिद्धांत (Trait Theory) का खंडन करती है।

(iii) इस विधि का प्रयोग करने वाले चिकित्सक अपने अनुभवों पर आश्रित समर्थन पाने की क्रिया पर अधिक बल देते हैं। 

(iv) चिकित्सक अपने रोगी की समस्यानुसार अपनी चिकित्सा प्रविधियों में परिवर्तन करता है। 

(v) सीखने के नियम अप-अनुकूलक व्यवहारों को बदलने में प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं।

(vi) इस पद्धति में यह धारणा होती है कि अमानुकूलक व्यवहार (Maladaptive Behaviour) मुख्यत सीखने की प्रक्रिया के माध्यम से अर्जित किया जाता है। अतः इस चिकित्सा पद्धति की प्रक्रियाओं में प्राचीन अनुबन्धन (Classical Conditioning), प्रतिक्रियात्मक अनुकूलन (Respondent Condition) तथा क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) के नियमों का प्रयोग किया जाता है। संक्षेप में इस प्रविधि की पृष्ठभूमि में यहाँ मूल भावना होती है कि जो व्यवहार विकार (Behaviour Disorder) के लक्षण (Symptoms) पहले सीखे गये थे उन्हें उपयुक्त प्रशिक्षण विधियों के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। रोगी के व्यवहार में बदलाव लाने से उसका समायोजन भी सही होने लगता है तथा पर्यावरण के साथ पूरे संतोष सहित क्रियाएं करते हैं।

व्यवहार चिकित्सा की प्रविधियाँ (Techniques of Behaviour Therapy)-  वर्तमानकाल में व्यवहार चिकित्सा पूरे संसार में नैदानिक मनोवैज्ञानिकों के लिये एक महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति बन गई है। व्यवहार चिकित्सा की कई प्रविधिया है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं

 1.क्रमबद्ध असंवेदीकरण (Systematic Desensitization)

 2 विरुचि चिकित्सा (Aversion Therapy)

3. अन्तः स्फोटात्मक चिकित्सा एवं फलडिंग (Implosive Therapy and Flooding) 

4. दृढ़ग्राही चिकित्सा (Assertive Therapy)

5. संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management)

6. मॉडलिंग (Modelling)

7 बायोफीडबैक विधि (Biofeedback Method)

उपरोक्त व्यवहार चिकित्सा पद्धतियों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है 

1. क्रमबद्ध असंवेदीकरण (Systematic Desensitization) 

अर्थ (Meaning)-इस विधि का प्रतिपादन सन् 1949 में साल्टर (Salter) तथा ओल्प (Wolpe, 1958) द्वारा किया गया। असंवेदीकरण (Desensitization) मूलतः चिता कम करने की एक प्रविधि है। यह इस नियम पर आधारित है कि व्यक्ति, एक ही समय में चिंता (Anxiety) तथा विश्राम (Rest) की अवस्था में एक साथ नहीं हो सकता। इसमें रोगी को पहले विश्राम की अवस्था में होने का प्रशिक्षण दिया जाता है, फिर उसमें चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों (Stimuli) को बढ़ते क्रम में दिया जाता है। रोगी चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों के प्रति असंवेदित हो जाता है।

चरण (Stages)-इस प्रविधि के निम्नलिखित तीन चरण हैं :

1.1 आराम करने का प्रशिक्षण (Training in Relaxation)

1.2 चिता के पदानुक्रम का निर्माण (Construction of Hierarchy of Anxieties)

1.3 असंवेदीकरण की कार्यविधि (Densensitization Procedure)

1.1 आराम करने का प्रशिक्षण (Training in Relaxation)

(1) इस अवस्था में रोगी को विश्राम करने का प्रशिक्षण दिया जाता है जो 5-6 सत्रों (Sessions) तक चलता है।

 (ii) इसमें रोगी को अपनी मासपेशियों को संकुचित करने, उन्हें अचानक ढीला करने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

1.2 चिंता के पदानुक्रम का निर्माण (Construction of Hierarchy of Anxieties)

(1) इस अवस्था में चिकित्सक उन उद्दीपकों की एक सूची तैयार करता है जिनसे रोगी में चिंता उत्पन्न होती है।

(ii) ऐसे उद्दीपकों (Stimuli) को एक आरोही क्रम (Ascending Order) में रखा जाता है अर्थात् सबसे कम चिंता पैदा करने वाले उद्दीपक को सबसे नीचे, उससे अधिक चिंता पैदा करने वाले उद्दीपक को उससे ऊपर सबसे अधिक चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को सबसे ऊपर रखा जाता है।

1.3 असवेदीकरण की कार्यविधि (Densensitization Procedure)

 (1) असंवेदीकरण की प्रक्रिया उपरोक्त दोनों अवस्थाओं के बाद शुरू होती है।

(ii) इस अवस्था में रोगी आँखें बंद करके आराम कुर्सी पर बैठ जाता है तथा चिकित्सक सबसे पहले एक तस्य परिस्थिति का वर्णन करता है और रोगी को यह निर्देश दिया जाता है कि वह इन परिस्थितियों की कल्पना करे और स्वयं को पूर्ण विश्राम की स्थिति में भी रखें।

(iii) यदि रोगी इस उद्स्य उदीपक के बाद भी शांत रहता है तो उसके सामने रोगी द्वारा बतलाये गये सबसे कम चिंता पैदा करने वाले उद्दीपन के प्रस्तुत किया जाता है या उसका वर्णन किया जाता है।

 (iv) इस प्रकार उसके सम्मुख सभी स्तर के पिता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को एक के बाद एक करके प्रस्तुत किया जाता है। 

(v) जिस द्वारा रोगी की विश्वास की अवस्था भंग होती है, सत्र (Session) वहीं रोक दिया जाता है।

(vi) इस प्रकार कई दिनों तक इसी प्रक्रिया को दोहस कर रोगी को शांत रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

(vii) यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक रोगी उस परिस्थिति में पूर्ण रूप से शांत रहने में सफल नहीं हो जाता।

उपयोग (Application)

(i) इसका सफलतापूर्वक उपयोग दुर्भीति (Phobia) के रोग में किया जाता है। जैसे कुत्ते, ऊंचाई, तेज़ हवा से डरना।

(ii) इसका उपयोग उस परिस्थिति में भी किया जाता है जहाँ व्यक्तियों में चिन्ता तात्कालिक स्पष्ट न होकर छिपी होती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित न होना, खराब स्मृति, संभ्रांति (Confusion), बोलने की धारा प्रवाहिता (Fluency) में कमी आदि विकृतिया पाई जाती हैं।

(iii) मनोदैहिक रोगों में भी रोगी की चिन्ता को कम करने में इस प्रविधि का प्रयोग सफल सिद्ध हुआ है।

कमियाँ (Drawbacks) 

(i) इस प्रविधि द्वारा सभी तरह के रोगियों की चिन्ताओं तथा डर का उपचार नहीं किया जा सकता, जैसे जब रोगी विश्राम की अवस्था में आने में कठिनाई महसूस करे, ऐसे रोगी जो चिन्ता पैदा करने वाले उद्दीपकों के बारे में वास्तविक सूचना नहीं देते तथा ऐसे रोगी जिनकी कल्पना शक्ति दुर्बल होती है।

(ii) जब चिन्ता की उत्पत्ति किसी एक ही उद्दीपक (Stimulus) से न होकर अनेक उद्दीपकों से होती है, तब भी इस प्रविधि का प्रयोग ठीक प्रकार से नहीं हो सकता।

(iii) यह प्रक्रिया प्रति-अनुबंधन (Counter Conditioning) पर आधारित न होकर विलोपन (Extinction) पर आधारित है।

2. विरुचि चिकित्सा (A version Therapy)-

(अर्थ Meaning)-यह एक ऐसी चिकित्सा है जिसमें चिकित्सक रोगी को अवांछित व्यवहार (Unwanted Behaviour) न करने का प्रशिक्षण कुछ दर्दनाक या असुखद उद्दीपकों (Painful stimuli) को देकर करता है। इस प्रविधि में चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक के प्रति रोगी में विरुचि (Aversion) पैदा कर दी जाती है जिससे उससे पैदा होने वाला कुसमायोजित या अवांछित व्यवहार धीरे-धीरे बंद हो जाता है। रोगी में विरूचि उत्पन्न करने के लिये दंड (Punishment), बिजली का आघात तथा विशेष दवा (Drug) आदि का प्रयोग किया जाता है।

लाभ (Advantages) 

(i) इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव (Side Effect) रोगी पर नहीं पड़ता।

(iii) विरुचि चिकित्सा का रोगी के व्यवहार पर बहुत ही तीव्र व्यवहार पड़ता है जिससे वह शीघ्र ही अप अनुकूलित व्यवहार को त्यागकर अनुकूलित व्यवहार (Adaptive Behaviour) सीख जाता है।

(iii) विरुचि चिकित्सा कुछ विशेष तरह के रोगियों जैसे मद्यपानता के रोगियों के अपअनुकूली व्यवहार (Maladaptive behaviour) के उपचार में अधिक लाभकारी सिद्ध हुआ है।

कमियाँ (Drawbacks)

(1) विरूचि चिकित्सा द्वारा रोगी के व्यवहार परिवर्तन तो तीव्रता से होते हैं लेकिन ये परिवर्तन स्थायी नहीं होते।

(ii) ऐसा मत प्रकट किया जाने लगा है कि विरुचि प्रविधि शायद ही कभी उपयुक्त वैकल्पिक व्यवहार (Alternative Behaviour) रोगी में पैदा कर पाता है। 

(iii) इस प्रविधि का उपयोग करने की अनुमति समाज सामान्यतः नहीं देता है क्योंकि ऐसी प्रविधियों को अनैतिक समझा जाता है।

(iv) विरुचि चिकित्सा का पार्श्व प्रभाव (Side Effect) भी पड़ता देखा गया है क्योंकि इससे रोगी में सामान्यीकृत डर (Generalized Fear) तथा आक्रमकता (Aggressiveness) में पहले की तुलना में बहुत वृद्धि हो जाती है।

3. अन्तः स्फोटात्मक चिकित्सा एवं फ्लडिंग (Implosive Therapy and Flooding)- 

अर्थ (Meaning)- ये दोनों ही प्रविधियों अर्थात् अंतः स्फोटात्मक और फलडिंग विलोपन (Extinctept के नियम पर आधारित हैं। इन दोनों प्रविधियों की पूर्वकल्पना यह है कि व्यक्ति किसी उद्दीपक या परिस्थिति से इसलिये डरते हैं या चिंतित रहते हैं क्योंकि वे सचमुच में नहीं सीख पाये कि ऐसे उद्दीपक या परिस्थिति वास्तव में खतरनाक नहीं है। जब इन उद्दीपकों या परिस्थिति के बीच रोगी को कुछ समय के लिये रखा जाता है तो वे धीरे-धीरे सीख लेते हैं कि उनकी चिंता या डर निराधार है। उनके इस विश्वास को पुनर्बलन (Reinforcement) मिलता है लेकिन उनकी चिंता या डर को पुनर्बलन नहीं मिलता, अतः वे धीरे-धीरे विलोपित (Extincted) हो जाते हैं।

फ्लडिंग (Flooding) व्यवहार चिकित्सा की एक दूसरी प्रविधि है जो अंत स्फोटात्मक चिकित्सा से काफी मिलती जुलती है। इसे 'इन वाईवो प्रविधि' (In Vivo Technique) भी कहते हैं। इस प्रविधि में रोगी को चिंता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति के बारे में कल्पना करने के लिये नहीं कहा जाता बल्कि उसे उस तरह की वास्तविक परिस्थिति में रखकर उपचार किया जाता है। इस विधि का उपयोग आमतौर पर उन व्यक्तियों पर किया जाता है जो चिंता पैदा करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक

के बारे में ठीक ढंग से कल्पना भी नहीं कर पाते। ऐसा माना जाता है फ्लडिंग अंतः स्फोटात्मक चिकित्सा से अधिक लाभकारी होता है क्योंकि फ्लडिंग का आधार कल्पना न होकर वास्तविकता होता है। साधारण दुर्भीति (Simple Phobia) के इलाज में फ्लडिंग प्रविधि अधिक लाभकारी है।

लाभ (Advantages) 

(i) इस प्रविधि द्वारा किया गया उपचार अधिक स्थाई होता है।

(ii) दुर्बल कल्पनाशक्ति वाले रोगियों को अनाप्रविधि विशेषकर फ्लडिंग (Flooding) से अधिक लाभ होता है। 

हानियाँ (Disadvantage)

(1) इस प्रविधि में चूँकि रोगी में कल्पना या वास्तविक परिस्थिति में रखकर बहुत अधिक चिन्ता उत्पन्न करने की कोशिश की जाती है। कभी कभी रोगी में इसका पार्श्व प्रभाव (Side Effect) होता पाया गया है। प्रायः रोगियों में घबराहट तथा आक्रामकता जैसे व्यवहार देखने को मिलते हैं।

(ii) यह प्रविधि गंभीर प्रकृति के मानसिक रोगियों के लिये उपयोगी नहीं है।

4. दृढ़ग्राही चिकित्सा या प्रशिक्षण (Assertive Therapy or Training)- 

अर्थ (Meaning)-इस प्रविधि का उपयोग उन व्यक्तियों के उपचार के लिये होता है जिन्हें अनुबाधित चिंता अनुक्रियाओं के कारण अन्य लोगों के साथ अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध (Interpersonal Relationship) कायम करने में असमर्थता महसूस होती है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अन्य लोगों के साथ ऐसे सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते। इससे उनमें हीनता, तुच्छता एवं चिंता का भाव उत्पन्न हो जाता है। ऐसे लोग अनावश्यक रूप से मानसिक तनाव में घिरे रहते हैं। ऐसे लोग चिंतित, क्रोचित तथा उत्साहहीन लगते हैं। इनका आत्म सम्मान भी कम हो जाता है।

दृढ़ग्राही चिकित्सा के माध्यम से ऐसे लोगों को दूसरे लोगों पर प्रभाव डालना सिखाया जाता है तथा उनके आत्म सम्मान को ऊंचा उठाया जाता है। दृढ़ग्राही चिकित्सा के लक्ष्य हैं--

(i) सामाजिक कौशल (Social Skills) के अभाव में ऐसे व्यक्तियों को यह बतलाना होता है कि वे अपने आप को किस तरह के प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त कर सकते हैं। 

(ii) इस चिकित्सा का दूसरा उद्देश्य संज्ञानात्मक अवरोधों (Cognitive Obstacles) को दूर करना होता है ताकि व्यक्ति उचित प्रकार से आत्म अभिव्यक्ति (Self-expression) कर सके।

दृढ़ग्राही चिकित्सा किसी भी अनुबंधन (Conditioning) पर आधारित हो सकती है जैसे Conditioning) या क्रिया-प्रसूत अनुबंधन (Instrumental or शास्त्रीय अनुबंधन (Classical Operant Conditioning)

क्रियाविधि (Procedure) बेशक इस विधि द्वारा व्यक्ति को प्रशिक्षण स्वतंत्र रूप से दिया जा सकता है लेकिन अधिकतर ऐसे प्रशिक्षण रोगियों का एक समूह बनाकर सम्पन्न किया जाता है।इस प्रविधि की प्रक्रिया के चार तत्व है :

 (i) पहले चरण में दृढ़कथन (Assertion) को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है।

(ii) दूसरे चरण में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में रोगी के अधिकारों (Rights ) तथा अन्य व्यक्तियों के अधिकारों के वर्णन पर प्रकाश डाला जाता है। 

(iii) तीसरे चरण में दृढ़ कथन (Assertion) की राह में संज्ञानात्मक अवरोधों (Cognitive Obstacles) की पहिचान करके उसे दूर करने की कोशिश की जाती है।

(iv) चौथे चरण में रोगी दृढ़ग्राही व्यवहार करने का अभ्यास करता है। इस चरण में चिकित्सक रोगी द्वारा किये जाने वाले व्यवहारों को करके उसे दिखाता है तथा वह ऐसे उपचार के लिये एक मॉडल का कार्य करता है। उसके इस प्रयास को चिकित्सक पुनर्बनित (Reinforce) करता है। इस प्रकार कुछ रिहर्सलों के पश्चात रोगी जीवन की वास्तविक परिस्थिति में नये व्यवहार करने के लिये प्रोत्साहित महसूस करता है। 

लाभ (Advantages)-अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि दृढ़ग्राही प्रशिक्षण की उपयोगिता काफी अधिक है। इससे कई तरह के रोगियों का उपचार सफलतापूर्वक किया जा सकता है, जैसे वैवाहिक समस्याएं, कालेज के छात्र-छात्राओं की समस्याएं आदि इस विधि के निम्न लाभ हैं

(1) आत्म-निश्चयात्मकता (Self Assertiveness) की कमी की अवस्था में इस तरह की से रोगी को लाभ होता है। संकोची, अन्तर्मुखी (Introverts) व्यक्तित्व व्यक्तियों में अक्सर ऐसी कमी पाई जाती है।

(ii) जिन लोगों को ऐसा उपचार या प्रशिक्षण मिला होता है वे समायोजी व्यवहार की दृष्टि से उन रोगियों से उत्तम स्थिति में होते हैं जिन रोगियों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिला होता। 

(ii) जिन लोगों को ऐसा उपचार या प्रशिक्षण मिला होता है वे समायोजी व्यवहार की दृष्टि से उन रोगियों से उत्तम स्थिति में होते हैं जिन रोगियों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिला होता। 

कमियाँ या अलाभ (Drawbacks or Disadvantages) 

(1) इस दृढ़ग्राही चिकित्सा द्वारा उन दुर्भातियों (Phobia) के रोगियों का उपचार नहीं किया जा सकता। जिनका सम्बन्ध अवैयक्तिक उद्दीपकों (Non-personal Stimuli) से होता है।

(ii) दृढ़ग्राही चिकित्सा कुछ विशेष तहर की अन्तर्वैयक्तिक परिस्थितियों के लिये भी उपयुक्त नहीं है। उदाहरणार्थ, जब व्यक्ति को कुछ व्यक्तियों द्वारा तिरस्कृत कर दिया जाता है तो दृढ़ग्राही व्यवहार से ऐसे व्यक्ति की समस्या का हल तो नहीं हो पाता, बल्कि उसमें आक्रामक व्यवहार और उत्पन्न होने लगता है।

5. संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management) 

अर्थ (Meaning)-संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management) शब्द या पद एक सामान्य पद है। इस पद के अन्तर्गत चिकित्सा की उन सभी प्रविधियों को रखा जाता है जो क्रियाप्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) के नियमों का उपयोग करते हुए व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन करते हैं। बुटजिन, एकोसेला तथा एलाय (Bootzin, Acocella and Alloy, 1993) के अनुसार,

"किसी अनुक्रिया की आवृत्ति को परिवर्तित करने के ख्याल से उस अनुक्रिया के परिणाम में किया गया जोड़-तोड़ को संभाव्यता प्रबन्धन कहा जाता है।"

(The manipulation of the consequence of a response in order to change the frequency of that response is called contingency management-Bootzin, Acocella and Alloy, 1993)

संभाव्यता (Contingency) शब्द से इस ओर इशारा होता है कि विशेष परिणाम (Consequence) (जैसे पुरस्कार या दंड) व्यक्ति के सामने तभी उपस्थित किया जाता है जब उसके द्वारा सिर्फ उस व्यवहार को किया जाता है जिसे मजबूत या कमज़ोर करना है। संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management) के अन्तर्गत कई चिकित्सा प्रविधियों को रखा गया है, उनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं: 

(A) शेपिंग (Shaping)

(B) समय बहिगामी (Time Out)

(C) संभाव्यता अनुबंधन (Contingency Contracting)

(D) अनुक्रिया लागत (Response Cost) (E) प्रीमक नियम (Premack Principle)

(F) सांकेतिक व्यवस्था (Token Economy) 


(A) शेपिंग (Shaping)

(i) इस प्रविधि में एक वांछित व्यवहार (Desirable Behaviour) को पुनर्बलित (Reinforce) करके विकसित किया जाता है।

(ii) फिर धीरे-धीरे उस व्यवहार को पुनर्बलित किया जाता है जो वांछित व्यवहार के बिल्कुल समान होता है। इस प्रकार से अंतिम वांछित व्यवहार को फिर व्यक्ति सफलतापूर्वक कर सकने में सफल हो पाता है।

(iii) इस प्रविधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कम बोलने वाले बच्चों को ठीक से बोलने में, मानसिक रूप से मंदित बच्चों को आत्मनिर्भर एवं कुछ कौशल सिखलाने में सफलतापूर्वक किया जाता है।

(B) समय बहिग्रांमी (Time Out)

(i) यह प्रविधि विलोपन (Extinction) का एक विशिष्ट प्रारूप है। 

(ii) इस प्रविधि में अवांछित व्यवहार के आवृत्ति (Frequency of Undesirable Behaviour) में कमी व्यक्ति को उस परिस्थिति से दूर करके की जाती है जिसमें उस व्यवहार को करने के लिये पर्याप्त पुनर्बलक (Reinforcers) मौजूद होते हैं। Contracting)-इस चिकित्सीय प्रविधि में रोगी

(C) संभाव्यता अनुबंधन (Contingency Contracting): संभाव्यता अनुबंधन और चिकित्सा के बीच एक औपचारिक सहमति या अनुबन्ध (Contract) होता है। स्टुआर्ट (Stuart, 1971) के अनुसार इस अनुबन्ध में मुख्य पाँच तत्व होते हैं:

(1) अनुबन्ध के प्रति रोगी और चिकित्सक दोनों की जवाबदेहियों (Accountabilities)का उल्लेख । 

(ii) अनुबन्ध की शर्तों को पूरा किया जाने पर मिलने वाला पुरस्कार का उल्लेख । 

(iii) अनुबन्ध के प्रावधानों (Provisions) के साथ अनुपालन को मानीटर करने के लिये विशेष तंत्र (System) का निर्माण ।

(iv) असाधारण कार्यों के लिये कुछ विशेष लाभ देने का उल्लेख ।

 (v) अनुबन्ध की शर्तों की असफलता होने पर दंड का उल्लेख ।

इस प्रकार संभाव्यता अनुबन्ध में शर्तों के अनुसार बहुत सी व्यवहार परिवर्तन की प्रविधियों को संगठित किया जाता है। इसका उपयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है। जैसे वैवाहिक तनाव (Marital Stress) दूर करने के लिये, औषध व्यसन को कम करने के लिये, पारिवारिक समस्या को कम करने के लिये।

(D) अनुक्रिया लागत (Response Cost)

(i) अनुक्रिया लागत की प्रविधि एक प्रकार की दंड संभाव्यता (Punishment Contingency) है जिसमें व्यक्ति को अवांछित व्यवहार करने पर मिलने वाले पुरस्कार से हाथ धोना पड़ सकता है या प्रदान की गई सुविधाओं को हटा लिया जाता है। उदाहरणार्थ-यातायात एवं पार्किंग नियमों को तोड़ने पर किया जाने वाला आर्थिक दंड।

(ii) इस प्रविधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कई प्रकार की नैदानिक समस्याओं जैसे आक्रामक व्यवहार, शैक्षिक समस्याएं, धूम्रपान की समस्या, अत्याधिक खाना खाने की समस्या आदि को दूर करने के लिये किया जाता है।

(E) प्रीमेक नियम (Response Principle) 

(1) इसे कभी-कभी ग्रेडमा नियम (Grandma's Rule) भी कहा जाता है।

(ii) इस प्रविधि में वांछित व्यवहार को व्यक्ति को उससे अधिक आकर्षक व्यवहार करने की छूट देकर पुनर्बलित किया जाता है। जैसे जब किसी बच्चे को यह कहा जाता है कि उसे संगीत का पाठ पूरा करने पर ही खेलने की अनुमति प्रदान की जायेगी तो यह प्रीमैक नियम का एक उदाहरण होगा।

(F) सांकेतिक व्यवस्था (Token Economy) 

(i) सांकेतिक व्यवस्था एक ऐसी प्रविधि है जिसमें कुसमायोजित व्यवहार को दूर करने के लिये रोगी को कुछ संकेत (Token) के रूप में ठोस पुनर्बलन (Tangile Reinforcer) देकर उपयुक्त व्यवहार सिखाया जाता है। 

(ii) बाद में रोगी अपनी इच्छानुसार उस संकेत को देकर वांछित वस्तु या सुविधा या लाभ प्राप्त कर सकता है।

(iii) ऐसे संकेत यहाँ मुद्रा (Money) के रूप में कार्य करते हैं। 

(iv) सांकेतिक व्यवस्था के चार तत्व होते हैं:

(a) लक्ष्य व्यवहार (Target Behaviour) -यह तत्व उस व्यवहार की ओर संकेत करता है जिसे परिवर्तित करना है। ऐसे व्यवहार को 'लक्ष्य व्यवहार' (Target Behaviour) कहा जाता है।

(b) विनिमय के रूप में संकेत (Token as Medium of Exchange ) - इसमें कुछ संकेत ऐसे होते हैं जिन्हें व्यक्ति को वांछित व्यवहार (Desirable Behaviour) करने पर बल दिया जाता है, जैसे कागज के बने रंगीन गोलाक या आयताकार टुकड़े, सोने का पानी चढ़ा धातु इत्यादि ।

(c) प्रोत्साहित करने वाला पुनर्बलक (Backup Reinforcer)- सांकेतिक व्यवस्था में संकेत के बदले में मिलने वाला कोई विशेष सामान या सेवाएं होती हैं। मनोरंजन की सुविधाएं, भोजन इत्यादि। इन्हें प्रोत्साहन प्रदान करने वाला पुनर्बलक के रूप में उपयोग किया जाता है।

(d) विनिमय का नियम ( Rules of Exchange)—सांकेतिक व्यवस्था में विनिमय (Exchange) के कुछ नियम होते हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्य व्यवहार करने के बाद उसे कितना संकेत (Tokens) मिलेगा तथा किसी विशेष प्रोत्साहन प्रदान करने वाला पुनर्बलक को प्राप्त करने के लिये उसे कितना संकेत प्राप्त करना होगा। परिस्थिति के अनुसार विनिमय के नियम में परिवर्तन लाया जाता है।

लाभ (Advantages)

(i) इस चिकित्सा प्रविधि द्वारा गंभीर मानसिक रूप से ग्रस्त रोगियों का उपचार संभव है। जैसे मनोविदालिता (Schizophrenia)

(ii) इस प्रविधि द्वारा रोगी में सामजिक जीवन एवं विभिन्न व्यवसायों से जुड़े वांछित व्यवहारों को विकसित किया जा सकता है

 (iii) इस विधि के संचालन में विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती।

(iv) इस पद्धति में समय और श्रम (Labour) कम लगते हैं।

 अलाभ (Disadvantages)

(i) इस पद्धति से किया गया उपचार स्थायी नहीं होता।

(ii) इस पद्धति के संचालन के लिये पर्याप्त संख्या में कर्मचारी उपलब्ध नहीं हो पाते। (iii) इस पद्धति से किसी रोग के बारे में प्राप्त परिणामों का सामान्यीकरण (Generalization) भी संभव नहीं है।

(iv) इस पद्धति से उपचार करने पर कभी-कभी बुरी आदतों का विकास होने लगता है जैसे दूसरों पर निर्भर करना तथा दूसरों से कुछ पाने की इच्छा रखना आदि।

6. मॉडलिंग (Modeling)-

अर्थ (Meaning): 

(i) माडलिंग एक ऐसी प्रविधि है जो अवलोकनात्मक अधिगम (Observational Learning) पर आधारित है।

(ii) इस प्रविधि में दूसरे व्यक्ति जैसे माता-पिता या चिकित्सक को रोगी का एक खास व्यवहार करते देखता है तथा साथ ही साथ उस व्यवहार से मिलने वाले परिणामों से भी अवगत होता है। इस तरह के प्रेक्षण (Observation) के आधार पर रोगी खुद भी वैसा ही व्यवहार करना धीरे-धीरे सीख जाता है।

(iii) नैदानिक मनोवज्ञानिकों ने मॉडलिंग की इस मौलिक प्रविधि में कई सुधार (Modifications) किये हैं। सबसे सामान्य सुधार को सहभागी मॉडलिंग (Participant Modelling) कहा जाता है। इसमें रोगी एक जीवित मॉडल को कुछ करते हुए देखता है। उदाहरणार्थ, यदि मॉडल ने साँप पकड़ रखा है जो रोगी को भी सौंप पकड़ने के लिये कहा जाता है। ऐसा करने से रोगी में धीरे-धीरे सौंप से डर समाप्त होने लगता है तथा उसकी चिंता कम होने लगती है।

(iv) मॉडलिंग का दूसरा सुधार गुप्त मॉडलिंग (Convert Modelling) कहलाता है। इसमें रोगी को किसी ऐसे मॉडल की कल्पना करने के लिये कहा जाता है जो वैसा व्यवहार कर रहा होता है जिसे वह अपनाना या सीखना चाहता है। 

(v) बार-बार ऐसा करने से उस वांछनीय व्यवहार (Desirable Behaviour) को करनेकी  प्रवृत्ति रोगी में विकसित हो जाती है।

लाभ (Advantages)

(i) मॉडलिंग में किसी प्रकार का प्रत्यक्ष धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) का उपयोग नहीं होता है। रोगी मॉडल के केवल प्रेक्षण (Observation) ही करता है तथा उसे देखकर ही वह अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है। परिणामस्वरूप हुआ परिवर्तन अधिक स्थायी होता है।

(ii) मॉडलिंग कुछ विशेष परिस्थिति में विशेषकर वैसी परिस्थिति में जहाँ रोगी में निश्चयात्मकता जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक व्यवहार की कमी होती है, काफी उपयोगी सिद्ध हुई है। 

अलाम या हानियाँ (Disadvantages)

(i) मॉडलिंग की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि रोगी मॉडल तथा उसके व्यवहार को कितना अधिक ध्यान देकर देखता है तथा उसे महत्वपूर्ण समझकर उसके व्यवहार करने की इच्छा व्यक्त करने की कोशिश करता है। प्रायः देखा गया है कि रोगी मॉडल के व्यवहार को मात्र एक नाटक समझकर उसकी उपेक्षा करता है। ऐसी सोच रखने वाले रोगियों का उपचार इस विधि से प्रभावशाली सिद्ध नहीं होता।

 (ii) इस प्रविधि की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि चिकित्सक में सामाजिक कौशल (Social Skills) हों। जिन चिकित्सकों में इन कौशलों का अभाव पाया जाता है, वे इस प्रविधि से उपचार करने में अधिक लाभान्वित नहीं हो पाते ।

7. बायोफीडबैक विधि (Biofeedback Method)- 

अर्थ (Meaning) :

(i) यह एक ऐसी व्यवहार चिकित्सा है कई मनोवैज्ञानिकों जैसे निटीजल तथा उनके सहयोगियों (Neitzal and Associates) ने संभाव्यता प्रबंधन (Contingency) Management) का ही एक अनोखा प्रारूप (Unique Version) माना है। व्यक्ति जब अपनी स्वायत्त अनुक्रियाओं (Autonomic Responses) का नियंत्रण व्यवहारपरक विधियों (Behavioural Methods) से करता है तो इसे बायोफिडबैंक (Biofeed Back) कहा जाता है। 

(ii) इस प्रविधि में विशेष वैद्युत उपकरण (Electrical Devices) की सहायता से रोगी को अपनी शारीरिक क्रियाओं के बारे में सूचना प्रदान की जाती है। 

(iii) ऐसी शारीरिक क्रियाओं में मूलतः अनैच्छिक क्रियाओं जैसे हृदय की गति, रक्तचाप, त्वचा का तापक्रम, मस्तिष्कीय तरंग (Brain Waves) तथा अन्य सम्बन्धित कार्य जिनका संचालन मूलतः स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (Autonomic Nervous System) से होता है, मुख्य होते हैं।

(iv) इन अनैच्छिक क्रियाओं में परिवर्तन लाने का प्रशिक्षण देकर रोगी के कुसमायोजित व्यवहार को दूर करके उसके स्थान पर समायोजित व्यवहार (Adaptive (Behaviour) को सिखलाया जाता है। 

चरण (Steps)-बायोफिडबैंक विधि द्वारा उपचार करने के निम्नलिखित चरण हैं : 

(i) रोगी की उस शारीरिक अनुक्रिया (Physiological Response) का मानीटर(Monitor) विशेष वैद्युत उपकरण द्वारा किया जाता है।

(ii) उपकरण द्वारा प्राप्त सूचनाओं के संकेतों के रूप में परिवर्तन करके उसे रोगी के सम्मुख रखा जाता है।

(iii) रोगी उस संकेत में परिवर्तन अपनी शारीरिक क्रियाओं में परिवर्तन करके देखता है।

इस प्रविधि का उपयोग कई तरह के रोगों में किया जाता है जैसे रक्तचाप (High Blood Pressure), सिरदर्द इत्यादि। इस प्रविधि के अन्तर्गत एक मानीटर तथा फीडबैक उपकरण (Feedback Apparatus) रोगी के शरीर से लगा दिया जाता है जो बाद में कुछ शारीरिक या मानसिक उपाय करके वांछित दिशा में अपनी आंतरिक अनुक्रिया में परिवर्तन करता है।

लाभ (Advantages)

 (i) इससे ऐसे रोगों के उपचार में सहायता मिलती है जिनका एक स्पष्ट दैहिक आधार होता है।

(ii) इस प्रविधि द्वारा उपचार में तुलनात्मक रूप से अधिक वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता और वैद्यता है। 

अलाभ या हानियाँ (Disadvantages)

(i) इसमें प्रयुक्त होने वाले उपकरण बहुत कीमती होते हैं जिनका उपयोग सभी चिकित्सक नहीं कर पाते। 

(ii) इस प्रविधि द्वारा हस्पताल परिसर में किये गये परिवर्तनों को व्यक्ति अपनी वास्तविक जिन्दगी में बनाकर सामान्यतः नहीं रख सकता।

(iii) इस बायोफीडबैक प्रविधि से जो परिवर्तन आते हैं उतने परिवर्तन या उससे अधिक परिवर्तन तो अन्य आसान और सस्ती प्रविधियों से ही आ जाते हैं जैसे विश्राम प्रशिक्षण (Relaxation Training)

व्यवहार चिकित्सा के गुण (Merits of Behaviour Therapy)

(i) व्यवहार चिकित्सा एक संक्षिप्त एवं यथार्थ (Real) विधि है। चूंकि इसमें लक्ष्य व्यवहार (Target Behaviour) निश्चित कर लिया जाता है तथा प्रयोग की जाने वाली प्रविधि भी तय कर ली जाती है, इस प्रविधि से प्राप्त परिणामों पर अधिक निर्भर किया जा सकता है तथा इसके परिणामों को एक वैज्ञानिक ढंग से रिपोर्ट किया जा सकता है, उन पर विचार-विमर्श किया जा सकता है।

(ii) व्यवहार चिकित्सा सीखने के नियमों (Principles of Learning) पर आधारित होती है, अतः इसमें चिकित्सक की योग्यता एवं दक्षता आदि पर निर्भरता नहीं भी रहती। इस दृष्टि से कम दक्ष चिकित्सक भी इस विधि उपयोग सफलतापूर्वक कर सकते हैं।

(iii) इसके द्वारा उपचार करने में अन्य विधियों की तुलना में कम समय लगता है तथा खर्चा भी कम होता है। इसमें सहयोगी कार्यकर्त्ताओं (Helpers) की आवश्यकता भी कम पड़ती है।

(iv) मानसिक रोगों को सिर्फ मेडिकल मॉडल के दृष्टिकोण से देखना अनुचित है। इनका मनोगतिकी विकल्प (Psychodynamic alternative) भी उपलब्ध है। यह बात व्यवहार चिकित्सा ने साबित कर दी है।

व्यवहार चिकित्सा के अवगुण (Demerits of Behaviour Therapy) 

(i) व्यवहार चिकित्सा को सभी प्रकार की मानसिक विक्रेतियों के उपचार के लिये लाभप्रद नहीं बताया गया। जैसे मनोविदालिता (Schizophrenia) के रोगी तथा गंभीर रूप से विषादी रोगी (Seriously Depressed Patients)।

(ii) व्यवहार चिकित्सा को कुछ नैदानिक मनोवैज्ञानिकों ने सतही (Superficial) कहा है। व्यवहार चिकित्सा में पूर्वअनुभूतियों (Past Experiences) को महत्व नहीं दिया जाता। इस चिकित्सा का मुख्य लक्ष्य रोगी की सूझ विकसित करना नहीं होता। यह चिकित्सा उन लोगों को खोखला दिखाई देती है जो व्यक्ति के आत्म-बोध (Self understanding) तथा आत्म-स्वीकार (Self-acceptance) के विकास पर अधिक बल देते हैं।

(iii) कुछ लोगों का यह भी मत है कि व्यवहार चिकित्सा द्वारा रोगी के लक्षण स्थायी रूप से दूर नहीं होते।

(iv) कुछ नैदानिक मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि व्यवहार चिकित्सा में रोगी की वैयक्तिक स्वतंत्रता (Individual Freedom) पर एक प्रकार का अंकुश लग जाता है क्योंकि को समझने का प्रयास इसमें चिकित्सक स्वयं के मूल्यों के अनुसार रोगी के व्यवहार करता है तथा उसमें जोड़-तोड़ (Manipulation) करता है।

(v) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि व्यवहार चिकित्सा अस्पष्ट प्रकृति वाली समस्याओं का उपचार करने में अधिक सफल नहीं हुआ है। उदाहरण, यदि किसी व्यक्ति में विषाद (Depression) का कारण अस्पष्ट है तो क्या व्यवहार चिकित्सा से उसका उपचार संभव है? शोधों से इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही मिला है।




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