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What is behaviour therapy, definition, types| व्यवहारचिकित्सा पद्धति का विस्तार से वर्णन करें।



उत्तर-व्यवहार चिकित्सा का अर्थ एवं स्वरूप (Meaning and Nature of Behaviour Therapy)—व्यवहार चिकित्सा (Behaviour Therapy) पद का सबसे पहले प्रयोग सन् 1953 में प्रकाशित एक शोधपत्र में किया गया। जिसे लिंडस्लेय, स्कीनर तथा सोलोमोन (Lindsley, Skinner and Solomon) ने लिखा गया था। इस पद का प्रयोग बाद में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक आइजन्क (Eysenck) ने जारी रखा। वर्तमान में इस पद का प्रयोग नैदानिक मनोविज्ञान (Clinical Psychology) में पर्याप्त रूप से किया जा रहा है। 'व्यवहार चिकित्सा' पद के स्थान पर कभी कभी "व्यवहार परिमार्जन (Behaviour Modification) पद का प्रयोग भी किया जाता है। इन दोनों को एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इन दोनों में अन्तर करने का प्रयास किया है। 'व्यवहार परिमार्जन' शब्द का प्रयोग करने वाले मनोवैज्ञानिक इस चिकित्सा का आधार स्कीनर द्वारा बताये गये नियमों या सिद्धांतों को मानते हैं। लेकिन जो मनोवैज्ञानिक इस चिकित्सा का आधार सामाजिक सीखना (Social Learning) तथा/ या संज्ञानात्मक सीखना (Cognitive Learning) मानते हैं ये 'व्यवहार चिकित्सा' (Behaviour Therapy) पद का प्रयोग अधिक करते हैं लेकिन इन दोनों पदों में यह अन्तर किसी प्रकार की समस्या पैदा नहीं करता। अतः एक दूसरे के लिये इन पदों का प्रयोग किया जा सकता है।

व्यवहार चिकित्सा (Behaviour Therapy) एक ऐसी प्रविधि है जिसमें मानसिक रोगों का उपचार कुछ ऐसी विधियों से किया जाता है जिसका आधार अनुबंधन (Conditioning) के क्षेत्र में विशेषकर पैवलय और स्किनर द्वारा तथा संज्ञानात्मक सीखने के क्षेत्र में किये गये प्रमुख सिद्धांत एवं नियम होते हैं।

ओल्प (Wolpe, 1969) ने व्यवहार चिकित्सा को ऐसे परिभाषित किया है, 'अप अनुकूलित व्यवहार को परिवर्तित करने के विचार से प्रयोगात्मक रूप से स्थापित अधिगम या सीखने के नियमों का उपयोग है। अपअनुकूलित आदतों को दुर्बल किया जाता है तथा उनका त्याग किया जाता है अनुकूलित आदतों की शुरुआत की जाती है तथा उन्हें सशक्त बनाया जाता है।

(Behaviour Therapy is the use of experimentally established principles of learning for the purpose of changing unadaptive behaviour. Unadaptive habits are weakened and eliminated, adaptive habits are initiated and strengthened-Wolpe(1969)

आइजैक (Eysneck) के अनुसार, “व्यवहार चिकित्सा मानव व्यवहार व संवेगों को सीखने के नियमों के आधार पर लाभदायक तरीकों में बदलाव लाने की कोशिश है।" 

उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि कुसमायोजित या अपअनुकूलित व्यवहार (Unadaptive Behaviour) के स्थान पर समायोजित या अनुकूलित व्यवहार (Adaptive. Behaviour) को सशक्त बनाने का प्रयास किया जाता है ताकि व्यक्ति सामान्य व्यवहार उचित ढंग से कर सकें। 

व्यवहार चिकित्सा के अन्तर्गत कुसमायोजित या अपअनुकूलित व्यक्ति (Maladjusted Person) के बारे में निम्नलिखित दो धारणाएँ (Assumptions) होती हैं :

(a) अपअनुकूलित या कुसमायोजित व्यक्ति (Maladjusted Person) उसे कहा जाता है जो जीवन की समस्याओं का सामना करने या उन्हें हल करने का सामर्थ्य किसी कारण से विकसित नहीं कर पाया या सीख नहीं पाया।

 (b) ऐसे व्यक्ति जो त्रुटिपूर्ण या दोषपूर्ण समायोजन पद्धतियाँ (Faulty Adjustment Patterns) सीख लेते हैं जो किसी न किसी प्रकार से पुनर्बलित (Reinforce) होकर स्वयं ही संपोषित (Maintain) होते रहते हैं या बने रहते हैं। 

व्यवहार चिकित्सा में अप अनुकूलित या कुसमायोजित व्यवहार (Maladaptive Behaviour) को बदलकर उसके स्थान पर अनुकूलित या समायोजित व्यवहार सिखाने का प्रयास किया जाता है।

व्यवहार चिकित्सा के प्रमुख नियम (Major Principles of Behaviour Therapy) - कुछ प्रमुख नैदानिक मनोवैज्ञानिकों जैसे फारकास (Farkas, 1980), रॉस (Ross, 1985), काजडिन (Kazdin, 1978) आदि ने अपने शोधों के आधार पर व्यवहार चिकित्सा कुछ निम्नलिखित सिद्धांतों (Principles) का प्रतिपाद किया :

(i) सामान्य व्यवहार और असामान्य व्यवहार में निरन्तरता (Continuity) होती है। सीखने के मौलिक नियम (Learning Principles) इन दोनों प्रकार के व्यवहारों अर्थात् सामान्य और असामान्य व्यवहारों पर लागू होते हैं। दूसरे शब्दों में इसी बात को हम ऐसे भी कह सकते हैं कि व्यक्ति अपअनुकूलित व्यवहार को उन्हीं मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सीखता है जिनके माध्यम से वह अनुकूलित व्यवहार को सीखता है।

(ii) व्यवहार चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति द्वारा स्पष्ट किये गये उपअनुकूलित व्यवहार को परिमार्जित (Modify) करना है। ऐसे व्यवहार से जुड़े संवेगों एवं संज्ञान (Cognition) पर भी प्रत्यक्ष रूप से ध्यान दिया जाता है।

(iii) व्यवहार चिकित्सा में रोगी के वर्तमान समस्याओं पर बल जाता है, न कि उसकी बाल्यावस्था की अनुभूतियों या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर (iv) व्यवहार चिकित्सा में उपचार के प्रयोगात्मक मूल्यांकन (Experimental Evaluation) के प्रति वचनबद्धता होती है। इसमें केवल उन्हीं प्रविधियों को सम्मिलित किया जाता है जिनकी वैज्ञानिक रूप से जाँच कर ली गई हो।

(v) व्यवहार चिकित्सा के अन्तर्गत बेशक चिकित्सक वैज्ञानिक रूप से जाँच करके परखी गई प्रविधियों को ही अपनाता है, फिर भी वह अपनी सेवा प्रदान करने में नैतिक नियमों एवं नैदानिक सिद्धांतों के अनुरूप निर्णय लेने के लिये बाध्य होता है। व्यवहार चिकित्सा में समस्या केन्द्रित प्रविधियों (Problem Focused Techniques) पर अधिक बल डाला जाता है।

(vi) व्यवहार चिकित्सा की जितनी भी प्रविधियाँ (Techniques) है प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के सैद्धांतिक मूल तथा आनुभविक तथ्यों (Empirical Findings) पर आधारित हैं। प्रारम्भ के दिनों में व्यवहार चिकित्सा मुख्यतः सीखने के सिद्धांतों के तथ्यों पर आधारित था परन्तु आजकल इसका आनुभविक आधार (Empirical Foundations) अधिक व्यापक है।

व्यवहार चिकित्सा की विशेषताएँ (Characteristics of Behaviour Therapy) – कास्टेल (Costell) ने व्यवहार चिकित्सा की निम्नलिखित विशेषताओं की चर्चा की है : 

1. इस चिकित्सा पद्धति में मुख्यतः यही प्रयास किया जाता है कि बच्चा अपनी पुरानी आदतों का त्याग करता जाये और नई समायोजनापूर्ण आदतों को सीख ले। 

2. व्यवहार उपचार पद्धति हल (Hull), स्किनर (Skinner) तथा मॉबरर (Mowerer) के सीखने पर आधारित है।

3. रोगी के व्यवहार के पीछे या तो गलत सीखे हुए व्यवहार है या गलत व्यवहार को सीखने  में असफलता है। 

4. व्यवहारों को सीखने पर व्यक्तिगत विभिन्नताओं (Individual Differences) का प्रभाव पड़ता है।

5.तंत्रिका ताप-प्रतिक्रियाएं किसी भी आयु स्तर पर पैदा हो सकती है। यदि असामान्य व्यवहार को पैदा करने वाली परिस्थितियों को ही समाप्त कर दिया ये भी स्वयं ही समाप्त हो जायेगा।

6 असामान्य व्यवहार का अधिगम (Learning) केवल बाल्यकाल (Childhood) में ही नहीं होता बल्कि बाद के आयु वर्ग में भी हो सकता है।

7. इस पद्धति में चिकित्सक रोग के विकास की ओर ध्यान नहीं देता, बल्कि वर्तमान असमायोजित व्यवहार विशेषताओं को दूर करने पर देता है।

रिम तथा मास्टर्स (Rimm and Masters) ने भी व्यवहार चिकित्सा की कुछ विशेषताओं की चर्चा की है जो कि निम्नलिखित हैं:

 (1) व्यवहार चिकित्सा पद्धति में स्पष्ट रूप से परिभाषित विशिष्ट लक्ष्यों का निर्धारण किया  जाता है।

(ii) यह पद्धति प्राचीन विशेषक सिद्धांत (Trait Theory) का खंडन करती है।

(iii) इस विधि का प्रयोग करने वाले चिकित्सक अपने अनुभवों पर आश्रित समर्थन पाने की क्रिया पर अधिक बल देते हैं। 

(iv) चिकित्सक अपने रोगी की समस्यानुसार अपनी चिकित्सा प्रविधियों में परिवर्तन करता है। 

(v) सीखने के नियम अप-अनुकूलक व्यवहारों को बदलने में प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं।

(vi) इस पद्धति में यह धारणा होती है कि अमानुकूलक व्यवहार (Maladaptive Behaviour) मुख्यत सीखने की प्रक्रिया के माध्यम से अर्जित किया जाता है। अतः इस चिकित्सा पद्धति की प्रक्रियाओं में प्राचीन अनुबन्धन (Classical Conditioning), प्रतिक्रियात्मक अनुकूलन (Respondent Condition) तथा क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) के नियमों का प्रयोग किया जाता है। संक्षेप में इस प्रविधि की पृष्ठभूमि में यहाँ मूल भावना होती है कि जो व्यवहार विकार (Behaviour Disorder) के लक्षण (Symptoms) पहले सीखे गये थे उन्हें उपयुक्त प्रशिक्षण विधियों के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। रोगी के व्यवहार में बदलाव लाने से उसका समायोजन भी सही होने लगता है तथा पर्यावरण के साथ पूरे संतोष सहित क्रियाएं करते हैं।

व्यवहार चिकित्सा की प्रविधियाँ (Techniques of Behaviour Therapy)-  वर्तमानकाल में व्यवहार चिकित्सा पूरे संसार में नैदानिक मनोवैज्ञानिकों के लिये एक महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति बन गई है। व्यवहार चिकित्सा की कई प्रविधिया है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं

 1.क्रमबद्ध असंवेदीकरण (Systematic Desensitization)

 2 विरुचि चिकित्सा (Aversion Therapy)

3. अन्तः स्फोटात्मक चिकित्सा एवं फलडिंग (Implosive Therapy and Flooding) 

4. दृढ़ग्राही चिकित्सा (Assertive Therapy)

5. संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management)

6. मॉडलिंग (Modelling)

7 बायोफीडबैक विधि (Biofeedback Method)

उपरोक्त व्यवहार चिकित्सा पद्धतियों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है 

1. क्रमबद्ध असंवेदीकरण (Systematic Desensitization) 

अर्थ (Meaning)-इस विधि का प्रतिपादन सन् 1949 में साल्टर (Salter) तथा ओल्प (Wolpe, 1958) द्वारा किया गया। असंवेदीकरण (Desensitization) मूलतः चिता कम करने की एक प्रविधि है। यह इस नियम पर आधारित है कि व्यक्ति, एक ही समय में चिंता (Anxiety) तथा विश्राम (Rest) की अवस्था में एक साथ नहीं हो सकता। इसमें रोगी को पहले विश्राम की अवस्था में होने का प्रशिक्षण दिया जाता है, फिर उसमें चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों (Stimuli) को बढ़ते क्रम में दिया जाता है। रोगी चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों के प्रति असंवेदित हो जाता है।

चरण (Stages)-इस प्रविधि के निम्नलिखित तीन चरण हैं :

1.1 आराम करने का प्रशिक्षण (Training in Relaxation)

1.2 चिता के पदानुक्रम का निर्माण (Construction of Hierarchy of Anxieties)

1.3 असंवेदीकरण की कार्यविधि (Densensitization Procedure)

1.1 आराम करने का प्रशिक्षण (Training in Relaxation)

(1) इस अवस्था में रोगी को विश्राम करने का प्रशिक्षण दिया जाता है जो 5-6 सत्रों (Sessions) तक चलता है।

 (ii) इसमें रोगी को अपनी मासपेशियों को संकुचित करने, उन्हें अचानक ढीला करने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

1.2 चिंता के पदानुक्रम का निर्माण (Construction of Hierarchy of Anxieties)

(1) इस अवस्था में चिकित्सक उन उद्दीपकों की एक सूची तैयार करता है जिनसे रोगी में चिंता उत्पन्न होती है।

(ii) ऐसे उद्दीपकों (Stimuli) को एक आरोही क्रम (Ascending Order) में रखा जाता है अर्थात् सबसे कम चिंता पैदा करने वाले उद्दीपक को सबसे नीचे, उससे अधिक चिंता पैदा करने वाले उद्दीपक को उससे ऊपर सबसे अधिक चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को सबसे ऊपर रखा जाता है।

1.3 असवेदीकरण की कार्यविधि (Densensitization Procedure)

 (1) असंवेदीकरण की प्रक्रिया उपरोक्त दोनों अवस्थाओं के बाद शुरू होती है।

(ii) इस अवस्था में रोगी आँखें बंद करके आराम कुर्सी पर बैठ जाता है तथा चिकित्सक सबसे पहले एक तस्य परिस्थिति का वर्णन करता है और रोगी को यह निर्देश दिया जाता है कि वह इन परिस्थितियों की कल्पना करे और स्वयं को पूर्ण विश्राम की स्थिति में भी रखें।

(iii) यदि रोगी इस उद्स्य उदीपक के बाद भी शांत रहता है तो उसके सामने रोगी द्वारा बतलाये गये सबसे कम चिंता पैदा करने वाले उद्दीपन के प्रस्तुत किया जाता है या उसका वर्णन किया जाता है।

 (iv) इस प्रकार उसके सम्मुख सभी स्तर के पिता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को एक के बाद एक करके प्रस्तुत किया जाता है। 

(v) जिस द्वारा रोगी की विश्वास की अवस्था भंग होती है, सत्र (Session) वहीं रोक दिया जाता है।

(vi) इस प्रकार कई दिनों तक इसी प्रक्रिया को दोहस कर रोगी को शांत रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

(vii) यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक रोगी उस परिस्थिति में पूर्ण रूप से शांत रहने में सफल नहीं हो जाता।

उपयोग (Application)

(i) इसका सफलतापूर्वक उपयोग दुर्भीति (Phobia) के रोग में किया जाता है। जैसे कुत्ते, ऊंचाई, तेज़ हवा से डरना।

(ii) इसका उपयोग उस परिस्थिति में भी किया जाता है जहाँ व्यक्तियों में चिन्ता तात्कालिक स्पष्ट न होकर छिपी होती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित न होना, खराब स्मृति, संभ्रांति (Confusion), बोलने की धारा प्रवाहिता (Fluency) में कमी आदि विकृतिया पाई जाती हैं।

(iii) मनोदैहिक रोगों में भी रोगी की चिन्ता को कम करने में इस प्रविधि का प्रयोग सफल सिद्ध हुआ है।

कमियाँ (Drawbacks) 

(i) इस प्रविधि द्वारा सभी तरह के रोगियों की चिन्ताओं तथा डर का उपचार नहीं किया जा सकता, जैसे जब रोगी विश्राम की अवस्था में आने में कठिनाई महसूस करे, ऐसे रोगी जो चिन्ता पैदा करने वाले उद्दीपकों के बारे में वास्तविक सूचना नहीं देते तथा ऐसे रोगी जिनकी कल्पना शक्ति दुर्बल होती है।

(ii) जब चिन्ता की उत्पत्ति किसी एक ही उद्दीपक (Stimulus) से न होकर अनेक उद्दीपकों से होती है, तब भी इस प्रविधि का प्रयोग ठीक प्रकार से नहीं हो सकता।

(iii) यह प्रक्रिया प्रति-अनुबंधन (Counter Conditioning) पर आधारित न होकर विलोपन (Extinction) पर आधारित है।

2. विरुचि चिकित्सा (A version Therapy)-

(अर्थ Meaning)-यह एक ऐसी चिकित्सा है जिसमें चिकित्सक रोगी को अवांछित व्यवहार (Unwanted Behaviour) न करने का प्रशिक्षण कुछ दर्दनाक या असुखद उद्दीपकों (Painful stimuli) को देकर करता है। इस प्रविधि में चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक के प्रति रोगी में विरुचि (Aversion) पैदा कर दी जाती है जिससे उससे पैदा होने वाला कुसमायोजित या अवांछित व्यवहार धीरे-धीरे बंद हो जाता है। रोगी में विरूचि उत्पन्न करने के लिये दंड (Punishment), बिजली का आघात तथा विशेष दवा (Drug) आदि का प्रयोग किया जाता है।

लाभ (Advantages) 

(i) इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव (Side Effect) रोगी पर नहीं पड़ता।

(iii) विरुचि चिकित्सा का रोगी के व्यवहार पर बहुत ही तीव्र व्यवहार पड़ता है जिससे वह शीघ्र ही अप अनुकूलित व्यवहार को त्यागकर अनुकूलित व्यवहार (Adaptive Behaviour) सीख जाता है।

(iii) विरुचि चिकित्सा कुछ विशेष तरह के रोगियों जैसे मद्यपानता के रोगियों के अपअनुकूली व्यवहार (Maladaptive behaviour) के उपचार में अधिक लाभकारी सिद्ध हुआ है।

कमियाँ (Drawbacks)

(1) विरूचि चिकित्सा द्वारा रोगी के व्यवहार परिवर्तन तो तीव्रता से होते हैं लेकिन ये परिवर्तन स्थायी नहीं होते।

(ii) ऐसा मत प्रकट किया जाने लगा है कि विरुचि प्रविधि शायद ही कभी उपयुक्त वैकल्पिक व्यवहार (Alternative Behaviour) रोगी में पैदा कर पाता है। 

(iii) इस प्रविधि का उपयोग करने की अनुमति समाज सामान्यतः नहीं देता है क्योंकि ऐसी प्रविधियों को अनैतिक समझा जाता है।

(iv) विरुचि चिकित्सा का पार्श्व प्रभाव (Side Effect) भी पड़ता देखा गया है क्योंकि इससे रोगी में सामान्यीकृत डर (Generalized Fear) तथा आक्रमकता (Aggressiveness) में पहले की तुलना में बहुत वृद्धि हो जाती है।

3. अन्तः स्फोटात्मक चिकित्सा एवं फ्लडिंग (Implosive Therapy and Flooding)- 

अर्थ (Meaning)- ये दोनों ही प्रविधियों अर्थात् अंतः स्फोटात्मक और फलडिंग विलोपन (Extinctept के नियम पर आधारित हैं। इन दोनों प्रविधियों की पूर्वकल्पना यह है कि व्यक्ति किसी उद्दीपक या परिस्थिति से इसलिये डरते हैं या चिंतित रहते हैं क्योंकि वे सचमुच में नहीं सीख पाये कि ऐसे उद्दीपक या परिस्थिति वास्तव में खतरनाक नहीं है। जब इन उद्दीपकों या परिस्थिति के बीच रोगी को कुछ समय के लिये रखा जाता है तो वे धीरे-धीरे सीख लेते हैं कि उनकी चिंता या डर निराधार है। उनके इस विश्वास को पुनर्बलन (Reinforcement) मिलता है लेकिन उनकी चिंता या डर को पुनर्बलन नहीं मिलता, अतः वे धीरे-धीरे विलोपित (Extincted) हो जाते हैं।

फ्लडिंग (Flooding) व्यवहार चिकित्सा की एक दूसरी प्रविधि है जो अंत स्फोटात्मक चिकित्सा से काफी मिलती जुलती है। इसे 'इन वाईवो प्रविधि' (In Vivo Technique) भी कहते हैं। इस प्रविधि में रोगी को चिंता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति के बारे में कल्पना करने के लिये नहीं कहा जाता बल्कि उसे उस तरह की वास्तविक परिस्थिति में रखकर उपचार किया जाता है। इस विधि का उपयोग आमतौर पर उन व्यक्तियों पर किया जाता है जो चिंता पैदा करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक

के बारे में ठीक ढंग से कल्पना भी नहीं कर पाते। ऐसा माना जाता है फ्लडिंग अंतः स्फोटात्मक चिकित्सा से अधिक लाभकारी होता है क्योंकि फ्लडिंग का आधार कल्पना न होकर वास्तविकता होता है। साधारण दुर्भीति (Simple Phobia) के इलाज में फ्लडिंग प्रविधि अधिक लाभकारी है।

लाभ (Advantages) 

(i) इस प्रविधि द्वारा किया गया उपचार अधिक स्थाई होता है।

(ii) दुर्बल कल्पनाशक्ति वाले रोगियों को अनाप्रविधि विशेषकर फ्लडिंग (Flooding) से अधिक लाभ होता है। 

हानियाँ (Disadvantage)

(1) इस प्रविधि में चूँकि रोगी में कल्पना या वास्तविक परिस्थिति में रखकर बहुत अधिक चिन्ता उत्पन्न करने की कोशिश की जाती है। कभी कभी रोगी में इसका पार्श्व प्रभाव (Side Effect) होता पाया गया है। प्रायः रोगियों में घबराहट तथा आक्रामकता जैसे व्यवहार देखने को मिलते हैं।

(ii) यह प्रविधि गंभीर प्रकृति के मानसिक रोगियों के लिये उपयोगी नहीं है।

4. दृढ़ग्राही चिकित्सा या प्रशिक्षण (Assertive Therapy or Training)- 

अर्थ (Meaning)-इस प्रविधि का उपयोग उन व्यक्तियों के उपचार के लिये होता है जिन्हें अनुबाधित चिंता अनुक्रियाओं के कारण अन्य लोगों के साथ अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध (Interpersonal Relationship) कायम करने में असमर्थता महसूस होती है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अन्य लोगों के साथ ऐसे सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते। इससे उनमें हीनता, तुच्छता एवं चिंता का भाव उत्पन्न हो जाता है। ऐसे लोग अनावश्यक रूप से मानसिक तनाव में घिरे रहते हैं। ऐसे लोग चिंतित, क्रोचित तथा उत्साहहीन लगते हैं। इनका आत्म सम्मान भी कम हो जाता है।

दृढ़ग्राही चिकित्सा के माध्यम से ऐसे लोगों को दूसरे लोगों पर प्रभाव डालना सिखाया जाता है तथा उनके आत्म सम्मान को ऊंचा उठाया जाता है। दृढ़ग्राही चिकित्सा के लक्ष्य हैं--

(i) सामाजिक कौशल (Social Skills) के अभाव में ऐसे व्यक्तियों को यह बतलाना होता है कि वे अपने आप को किस तरह के प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त कर सकते हैं। 

(ii) इस चिकित्सा का दूसरा उद्देश्य संज्ञानात्मक अवरोधों (Cognitive Obstacles) को दूर करना होता है ताकि व्यक्ति उचित प्रकार से आत्म अभिव्यक्ति (Self-expression) कर सके।

दृढ़ग्राही चिकित्सा किसी भी अनुबंधन (Conditioning) पर आधारित हो सकती है जैसे Conditioning) या क्रिया-प्रसूत अनुबंधन (Instrumental or शास्त्रीय अनुबंधन (Classical Operant Conditioning)

क्रियाविधि (Procedure) बेशक इस विधि द्वारा व्यक्ति को प्रशिक्षण स्वतंत्र रूप से दिया जा सकता है लेकिन अधिकतर ऐसे प्रशिक्षण रोगियों का एक समूह बनाकर सम्पन्न किया जाता है।इस प्रविधि की प्रक्रिया के चार तत्व है :

 (i) पहले चरण में दृढ़कथन (Assertion) को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है।

(ii) दूसरे चरण में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में रोगी के अधिकारों (Rights ) तथा अन्य व्यक्तियों के अधिकारों के वर्णन पर प्रकाश डाला जाता है। 

(iii) तीसरे चरण में दृढ़ कथन (Assertion) की राह में संज्ञानात्मक अवरोधों (Cognitive Obstacles) की पहिचान करके उसे दूर करने की कोशिश की जाती है।

(iv) चौथे चरण में रोगी दृढ़ग्राही व्यवहार करने का अभ्यास करता है। इस चरण में चिकित्सक रोगी द्वारा किये जाने वाले व्यवहारों को करके उसे दिखाता है तथा वह ऐसे उपचार के लिये एक मॉडल का कार्य करता है। उसके इस प्रयास को चिकित्सक पुनर्बनित (Reinforce) करता है। इस प्रकार कुछ रिहर्सलों के पश्चात रोगी जीवन की वास्तविक परिस्थिति में नये व्यवहार करने के लिये प्रोत्साहित महसूस करता है। 

लाभ (Advantages)-अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि दृढ़ग्राही प्रशिक्षण की उपयोगिता काफी अधिक है। इससे कई तरह के रोगियों का उपचार सफलतापूर्वक किया जा सकता है, जैसे वैवाहिक समस्याएं, कालेज के छात्र-छात्राओं की समस्याएं आदि इस विधि के निम्न लाभ हैं

(1) आत्म-निश्चयात्मकता (Self Assertiveness) की कमी की अवस्था में इस तरह की से रोगी को लाभ होता है। संकोची, अन्तर्मुखी (Introverts) व्यक्तित्व व्यक्तियों में अक्सर ऐसी कमी पाई जाती है।

(ii) जिन लोगों को ऐसा उपचार या प्रशिक्षण मिला होता है वे समायोजी व्यवहार की दृष्टि से उन रोगियों से उत्तम स्थिति में होते हैं जिन रोगियों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिला होता। 

(ii) जिन लोगों को ऐसा उपचार या प्रशिक्षण मिला होता है वे समायोजी व्यवहार की दृष्टि से उन रोगियों से उत्तम स्थिति में होते हैं जिन रोगियों को ऐसा प्रशिक्षण नहीं मिला होता। 

कमियाँ या अलाभ (Drawbacks or Disadvantages) 

(1) इस दृढ़ग्राही चिकित्सा द्वारा उन दुर्भातियों (Phobia) के रोगियों का उपचार नहीं किया जा सकता। जिनका सम्बन्ध अवैयक्तिक उद्दीपकों (Non-personal Stimuli) से होता है।

(ii) दृढ़ग्राही चिकित्सा कुछ विशेष तहर की अन्तर्वैयक्तिक परिस्थितियों के लिये भी उपयुक्त नहीं है। उदाहरणार्थ, जब व्यक्ति को कुछ व्यक्तियों द्वारा तिरस्कृत कर दिया जाता है तो दृढ़ग्राही व्यवहार से ऐसे व्यक्ति की समस्या का हल तो नहीं हो पाता, बल्कि उसमें आक्रामक व्यवहार और उत्पन्न होने लगता है।

5. संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management) 

अर्थ (Meaning)-संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management) शब्द या पद एक सामान्य पद है। इस पद के अन्तर्गत चिकित्सा की उन सभी प्रविधियों को रखा जाता है जो क्रियाप्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) के नियमों का उपयोग करते हुए व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन करते हैं। बुटजिन, एकोसेला तथा एलाय (Bootzin, Acocella and Alloy, 1993) के अनुसार,

"किसी अनुक्रिया की आवृत्ति को परिवर्तित करने के ख्याल से उस अनुक्रिया के परिणाम में किया गया जोड़-तोड़ को संभाव्यता प्रबन्धन कहा जाता है।"

(The manipulation of the consequence of a response in order to change the frequency of that response is called contingency management-Bootzin, Acocella and Alloy, 1993)

संभाव्यता (Contingency) शब्द से इस ओर इशारा होता है कि विशेष परिणाम (Consequence) (जैसे पुरस्कार या दंड) व्यक्ति के सामने तभी उपस्थित किया जाता है जब उसके द्वारा सिर्फ उस व्यवहार को किया जाता है जिसे मजबूत या कमज़ोर करना है। संभाव्यता प्रबन्धन (Contingency Management) के अन्तर्गत कई चिकित्सा प्रविधियों को रखा गया है, उनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं: 

(A) शेपिंग (Shaping)

(B) समय बहिगामी (Time Out)

(C) संभाव्यता अनुबंधन (Contingency Contracting)

(D) अनुक्रिया लागत (Response Cost) (E) प्रीमक नियम (Premack Principle)

(F) सांकेतिक व्यवस्था (Token Economy) 


(A) शेपिंग (Shaping)

(i) इस प्रविधि में एक वांछित व्यवहार (Desirable Behaviour) को पुनर्बलित (Reinforce) करके विकसित किया जाता है।

(ii) फिर धीरे-धीरे उस व्यवहार को पुनर्बलित किया जाता है जो वांछित व्यवहार के बिल्कुल समान होता है। इस प्रकार से अंतिम वांछित व्यवहार को फिर व्यक्ति सफलतापूर्वक कर सकने में सफल हो पाता है।

(iii) इस प्रविधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कम बोलने वाले बच्चों को ठीक से बोलने में, मानसिक रूप से मंदित बच्चों को आत्मनिर्भर एवं कुछ कौशल सिखलाने में सफलतापूर्वक किया जाता है।

(B) समय बहिग्रांमी (Time Out)

(i) यह प्रविधि विलोपन (Extinction) का एक विशिष्ट प्रारूप है। 

(ii) इस प्रविधि में अवांछित व्यवहार के आवृत्ति (Frequency of Undesirable Behaviour) में कमी व्यक्ति को उस परिस्थिति से दूर करके की जाती है जिसमें उस व्यवहार को करने के लिये पर्याप्त पुनर्बलक (Reinforcers) मौजूद होते हैं। Contracting)-इस चिकित्सीय प्रविधि में रोगी

(C) संभाव्यता अनुबंधन (Contingency Contracting): संभाव्यता अनुबंधन और चिकित्सा के बीच एक औपचारिक सहमति या अनुबन्ध (Contract) होता है। स्टुआर्ट (Stuart, 1971) के अनुसार इस अनुबन्ध में मुख्य पाँच तत्व होते हैं:

(1) अनुबन्ध के प्रति रोगी और चिकित्सक दोनों की जवाबदेहियों (Accountabilities)का उल्लेख । 

(ii) अनुबन्ध की शर्तों को पूरा किया जाने पर मिलने वाला पुरस्कार का उल्लेख । 

(iii) अनुबन्ध के प्रावधानों (Provisions) के साथ अनुपालन को मानीटर करने के लिये विशेष तंत्र (System) का निर्माण ।

(iv) असाधारण कार्यों के लिये कुछ विशेष लाभ देने का उल्लेख ।

 (v) अनुबन्ध की शर्तों की असफलता होने पर दंड का उल्लेख ।

इस प्रकार संभाव्यता अनुबन्ध में शर्तों के अनुसार बहुत सी व्यवहार परिवर्तन की प्रविधियों को संगठित किया जाता है। इसका उपयोग कई परिस्थितियों में किया जाता है। जैसे वैवाहिक तनाव (Marital Stress) दूर करने के लिये, औषध व्यसन को कम करने के लिये, पारिवारिक समस्या को कम करने के लिये।

(D) अनुक्रिया लागत (Response Cost)

(i) अनुक्रिया लागत की प्रविधि एक प्रकार की दंड संभाव्यता (Punishment Contingency) है जिसमें व्यक्ति को अवांछित व्यवहार करने पर मिलने वाले पुरस्कार से हाथ धोना पड़ सकता है या प्रदान की गई सुविधाओं को हटा लिया जाता है। उदाहरणार्थ-यातायात एवं पार्किंग नियमों को तोड़ने पर किया जाने वाला आर्थिक दंड।

(ii) इस प्रविधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कई प्रकार की नैदानिक समस्याओं जैसे आक्रामक व्यवहार, शैक्षिक समस्याएं, धूम्रपान की समस्या, अत्याधिक खाना खाने की समस्या आदि को दूर करने के लिये किया जाता है।

(E) प्रीमेक नियम (Response Principle) 

(1) इसे कभी-कभी ग्रेडमा नियम (Grandma's Rule) भी कहा जाता है।

(ii) इस प्रविधि में वांछित व्यवहार को व्यक्ति को उससे अधिक आकर्षक व्यवहार करने की छूट देकर पुनर्बलित किया जाता है। जैसे जब किसी बच्चे को यह कहा जाता है कि उसे संगीत का पाठ पूरा करने पर ही खेलने की अनुमति प्रदान की जायेगी तो यह प्रीमैक नियम का एक उदाहरण होगा।

(F) सांकेतिक व्यवस्था (Token Economy) 

(i) सांकेतिक व्यवस्था एक ऐसी प्रविधि है जिसमें कुसमायोजित व्यवहार को दूर करने के लिये रोगी को कुछ संकेत (Token) के रूप में ठोस पुनर्बलन (Tangile Reinforcer) देकर उपयुक्त व्यवहार सिखाया जाता है। 

(ii) बाद में रोगी अपनी इच्छानुसार उस संकेत को देकर वांछित वस्तु या सुविधा या लाभ प्राप्त कर सकता है।

(iii) ऐसे संकेत यहाँ मुद्रा (Money) के रूप में कार्य करते हैं। 

(iv) सांकेतिक व्यवस्था के चार तत्व होते हैं:

(a) लक्ष्य व्यवहार (Target Behaviour) -यह तत्व उस व्यवहार की ओर संकेत करता है जिसे परिवर्तित करना है। ऐसे व्यवहार को 'लक्ष्य व्यवहार' (Target Behaviour) कहा जाता है।

(b) विनिमय के रूप में संकेत (Token as Medium of Exchange ) - इसमें कुछ संकेत ऐसे होते हैं जिन्हें व्यक्ति को वांछित व्यवहार (Desirable Behaviour) करने पर बल दिया जाता है, जैसे कागज के बने रंगीन गोलाक या आयताकार टुकड़े, सोने का पानी चढ़ा धातु इत्यादि ।

(c) प्रोत्साहित करने वाला पुनर्बलक (Backup Reinforcer)- सांकेतिक व्यवस्था में संकेत के बदले में मिलने वाला कोई विशेष सामान या सेवाएं होती हैं। मनोरंजन की सुविधाएं, भोजन इत्यादि। इन्हें प्रोत्साहन प्रदान करने वाला पुनर्बलक के रूप में उपयोग किया जाता है।

(d) विनिमय का नियम ( Rules of Exchange)—सांकेतिक व्यवस्था में विनिमय (Exchange) के कुछ नियम होते हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्य व्यवहार करने के बाद उसे कितना संकेत (Tokens) मिलेगा तथा किसी विशेष प्रोत्साहन प्रदान करने वाला पुनर्बलक को प्राप्त करने के लिये उसे कितना संकेत प्राप्त करना होगा। परिस्थिति के अनुसार विनिमय के नियम में परिवर्तन लाया जाता है।

लाभ (Advantages)

(i) इस चिकित्सा प्रविधि द्वारा गंभीर मानसिक रूप से ग्रस्त रोगियों का उपचार संभव है। जैसे मनोविदालिता (Schizophrenia)

(ii) इस प्रविधि द्वारा रोगी में सामजिक जीवन एवं विभिन्न व्यवसायों से जुड़े वांछित व्यवहारों को विकसित किया जा सकता है

 (iii) इस विधि के संचालन में विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती।

(iv) इस पद्धति में समय और श्रम (Labour) कम लगते हैं।

 अलाभ (Disadvantages)

(i) इस पद्धति से किया गया उपचार स्थायी नहीं होता।

(ii) इस पद्धति के संचालन के लिये पर्याप्त संख्या में कर्मचारी उपलब्ध नहीं हो पाते। (iii) इस पद्धति से किसी रोग के बारे में प्राप्त परिणामों का सामान्यीकरण (Generalization) भी संभव नहीं है।

(iv) इस पद्धति से उपचार करने पर कभी-कभी बुरी आदतों का विकास होने लगता है जैसे दूसरों पर निर्भर करना तथा दूसरों से कुछ पाने की इच्छा रखना आदि।

6. मॉडलिंग (Modeling)-

अर्थ (Meaning): 

(i) माडलिंग एक ऐसी प्रविधि है जो अवलोकनात्मक अधिगम (Observational Learning) पर आधारित है।

(ii) इस प्रविधि में दूसरे व्यक्ति जैसे माता-पिता या चिकित्सक को रोगी का एक खास व्यवहार करते देखता है तथा साथ ही साथ उस व्यवहार से मिलने वाले परिणामों से भी अवगत होता है। इस तरह के प्रेक्षण (Observation) के आधार पर रोगी खुद भी वैसा ही व्यवहार करना धीरे-धीरे सीख जाता है।

(iii) नैदानिक मनोवज्ञानिकों ने मॉडलिंग की इस मौलिक प्रविधि में कई सुधार (Modifications) किये हैं। सबसे सामान्य सुधार को सहभागी मॉडलिंग (Participant Modelling) कहा जाता है। इसमें रोगी एक जीवित मॉडल को कुछ करते हुए देखता है। उदाहरणार्थ, यदि मॉडल ने साँप पकड़ रखा है जो रोगी को भी सौंप पकड़ने के लिये कहा जाता है। ऐसा करने से रोगी में धीरे-धीरे सौंप से डर समाप्त होने लगता है तथा उसकी चिंता कम होने लगती है।

(iv) मॉडलिंग का दूसरा सुधार गुप्त मॉडलिंग (Convert Modelling) कहलाता है। इसमें रोगी को किसी ऐसे मॉडल की कल्पना करने के लिये कहा जाता है जो वैसा व्यवहार कर रहा होता है जिसे वह अपनाना या सीखना चाहता है। 

(v) बार-बार ऐसा करने से उस वांछनीय व्यवहार (Desirable Behaviour) को करनेकी  प्रवृत्ति रोगी में विकसित हो जाती है।

लाभ (Advantages)

(i) मॉडलिंग में किसी प्रकार का प्रत्यक्ष धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) का उपयोग नहीं होता है। रोगी मॉडल के केवल प्रेक्षण (Observation) ही करता है तथा उसे देखकर ही वह अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है। परिणामस्वरूप हुआ परिवर्तन अधिक स्थायी होता है।

(ii) मॉडलिंग कुछ विशेष परिस्थिति में विशेषकर वैसी परिस्थिति में जहाँ रोगी में निश्चयात्मकता जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक व्यवहार की कमी होती है, काफी उपयोगी सिद्ध हुई है। 

अलाम या हानियाँ (Disadvantages)

(i) मॉडलिंग की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि रोगी मॉडल तथा उसके व्यवहार को कितना अधिक ध्यान देकर देखता है तथा उसे महत्वपूर्ण समझकर उसके व्यवहार करने की इच्छा व्यक्त करने की कोशिश करता है। प्रायः देखा गया है कि रोगी मॉडल के व्यवहार को मात्र एक नाटक समझकर उसकी उपेक्षा करता है। ऐसी सोच रखने वाले रोगियों का उपचार इस विधि से प्रभावशाली सिद्ध नहीं होता।

 (ii) इस प्रविधि की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि चिकित्सक में सामाजिक कौशल (Social Skills) हों। जिन चिकित्सकों में इन कौशलों का अभाव पाया जाता है, वे इस प्रविधि से उपचार करने में अधिक लाभान्वित नहीं हो पाते ।

7. बायोफीडबैक विधि (Biofeedback Method)- 

अर्थ (Meaning) :

(i) यह एक ऐसी व्यवहार चिकित्सा है कई मनोवैज्ञानिकों जैसे निटीजल तथा उनके सहयोगियों (Neitzal and Associates) ने संभाव्यता प्रबंधन (Contingency) Management) का ही एक अनोखा प्रारूप (Unique Version) माना है। व्यक्ति जब अपनी स्वायत्त अनुक्रियाओं (Autonomic Responses) का नियंत्रण व्यवहारपरक विधियों (Behavioural Methods) से करता है तो इसे बायोफिडबैंक (Biofeed Back) कहा जाता है। 

(ii) इस प्रविधि में विशेष वैद्युत उपकरण (Electrical Devices) की सहायता से रोगी को अपनी शारीरिक क्रियाओं के बारे में सूचना प्रदान की जाती है। 

(iii) ऐसी शारीरिक क्रियाओं में मूलतः अनैच्छिक क्रियाओं जैसे हृदय की गति, रक्तचाप, त्वचा का तापक्रम, मस्तिष्कीय तरंग (Brain Waves) तथा अन्य सम्बन्धित कार्य जिनका संचालन मूलतः स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (Autonomic Nervous System) से होता है, मुख्य होते हैं।

(iv) इन अनैच्छिक क्रियाओं में परिवर्तन लाने का प्रशिक्षण देकर रोगी के कुसमायोजित व्यवहार को दूर करके उसके स्थान पर समायोजित व्यवहार (Adaptive (Behaviour) को सिखलाया जाता है। 

चरण (Steps)-बायोफिडबैंक विधि द्वारा उपचार करने के निम्नलिखित चरण हैं : 

(i) रोगी की उस शारीरिक अनुक्रिया (Physiological Response) का मानीटर(Monitor) विशेष वैद्युत उपकरण द्वारा किया जाता है।

(ii) उपकरण द्वारा प्राप्त सूचनाओं के संकेतों के रूप में परिवर्तन करके उसे रोगी के सम्मुख रखा जाता है।

(iii) रोगी उस संकेत में परिवर्तन अपनी शारीरिक क्रियाओं में परिवर्तन करके देखता है।

इस प्रविधि का उपयोग कई तरह के रोगों में किया जाता है जैसे रक्तचाप (High Blood Pressure), सिरदर्द इत्यादि। इस प्रविधि के अन्तर्गत एक मानीटर तथा फीडबैक उपकरण (Feedback Apparatus) रोगी के शरीर से लगा दिया जाता है जो बाद में कुछ शारीरिक या मानसिक उपाय करके वांछित दिशा में अपनी आंतरिक अनुक्रिया में परिवर्तन करता है।

लाभ (Advantages)

 (i) इससे ऐसे रोगों के उपचार में सहायता मिलती है जिनका एक स्पष्ट दैहिक आधार होता है।

(ii) इस प्रविधि द्वारा उपचार में तुलनात्मक रूप से अधिक वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता और वैद्यता है। 

अलाभ या हानियाँ (Disadvantages)

(i) इसमें प्रयुक्त होने वाले उपकरण बहुत कीमती होते हैं जिनका उपयोग सभी चिकित्सक नहीं कर पाते। 

(ii) इस प्रविधि द्वारा हस्पताल परिसर में किये गये परिवर्तनों को व्यक्ति अपनी वास्तविक जिन्दगी में बनाकर सामान्यतः नहीं रख सकता।

(iii) इस बायोफीडबैक प्रविधि से जो परिवर्तन आते हैं उतने परिवर्तन या उससे अधिक परिवर्तन तो अन्य आसान और सस्ती प्रविधियों से ही आ जाते हैं जैसे विश्राम प्रशिक्षण (Relaxation Training)

व्यवहार चिकित्सा के गुण (Merits of Behaviour Therapy)

(i) व्यवहार चिकित्सा एक संक्षिप्त एवं यथार्थ (Real) विधि है। चूंकि इसमें लक्ष्य व्यवहार (Target Behaviour) निश्चित कर लिया जाता है तथा प्रयोग की जाने वाली प्रविधि भी तय कर ली जाती है, इस प्रविधि से प्राप्त परिणामों पर अधिक निर्भर किया जा सकता है तथा इसके परिणामों को एक वैज्ञानिक ढंग से रिपोर्ट किया जा सकता है, उन पर विचार-विमर्श किया जा सकता है।

(ii) व्यवहार चिकित्सा सीखने के नियमों (Principles of Learning) पर आधारित होती है, अतः इसमें चिकित्सक की योग्यता एवं दक्षता आदि पर निर्भरता नहीं भी रहती। इस दृष्टि से कम दक्ष चिकित्सक भी इस विधि उपयोग सफलतापूर्वक कर सकते हैं।

(iii) इसके द्वारा उपचार करने में अन्य विधियों की तुलना में कम समय लगता है तथा खर्चा भी कम होता है। इसमें सहयोगी कार्यकर्त्ताओं (Helpers) की आवश्यकता भी कम पड़ती है।

(iv) मानसिक रोगों को सिर्फ मेडिकल मॉडल के दृष्टिकोण से देखना अनुचित है। इनका मनोगतिकी विकल्प (Psychodynamic alternative) भी उपलब्ध है। यह बात व्यवहार चिकित्सा ने साबित कर दी है।

व्यवहार चिकित्सा के अवगुण (Demerits of Behaviour Therapy) 

(i) व्यवहार चिकित्सा को सभी प्रकार की मानसिक विक्रेतियों के उपचार के लिये लाभप्रद नहीं बताया गया। जैसे मनोविदालिता (Schizophrenia) के रोगी तथा गंभीर रूप से विषादी रोगी (Seriously Depressed Patients)।

(ii) व्यवहार चिकित्सा को कुछ नैदानिक मनोवैज्ञानिकों ने सतही (Superficial) कहा है। व्यवहार चिकित्सा में पूर्वअनुभूतियों (Past Experiences) को महत्व नहीं दिया जाता। इस चिकित्सा का मुख्य लक्ष्य रोगी की सूझ विकसित करना नहीं होता। यह चिकित्सा उन लोगों को खोखला दिखाई देती है जो व्यक्ति के आत्म-बोध (Self understanding) तथा आत्म-स्वीकार (Self-acceptance) के विकास पर अधिक बल देते हैं।

(iii) कुछ लोगों का यह भी मत है कि व्यवहार चिकित्सा द्वारा रोगी के लक्षण स्थायी रूप से दूर नहीं होते।

(iv) कुछ नैदानिक मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि व्यवहार चिकित्सा में रोगी की वैयक्तिक स्वतंत्रता (Individual Freedom) पर एक प्रकार का अंकुश लग जाता है क्योंकि को समझने का प्रयास इसमें चिकित्सक स्वयं के मूल्यों के अनुसार रोगी के व्यवहार करता है तथा उसमें जोड़-तोड़ (Manipulation) करता है।

(v) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि व्यवहार चिकित्सा अस्पष्ट प्रकृति वाली समस्याओं का उपचार करने में अधिक सफल नहीं हुआ है। उदाहरण, यदि किसी व्यक्ति में विषाद (Depression) का कारण अस्पष्ट है तो क्या व्यवहार चिकित्सा से उसका उपचार संभव है? शोधों से इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही मिला है।




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फ्रायड : व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त| FREUD PSYCHOANALYTIC THEORY OF PERSONALITY


फ्रायड (Sigmund Freud 1856-1939) का जन्म यहूदी परिवार में चैकोस्लोवाकिया में हुआ। वह सन् 1885 में शाकों के पास पैरिस गया जहाँ उसने न्यूरोलॉजी का अध्ययन किया। बूअर (Joseph Breuer) के साथ उसका पहला प्रकाशन सन् 1839 में Psychic Mechanisms पर प्रकाशित हुआ। सन् 1895 में बूअर के साथ हिस्टीरिया का अध्ययन किया। Psychopathology of Everyday Life का प्रकाशन सन् 1904 में हुआ। फ्रायड के कुछ प्रमुख प्रकाशन निम्न प्रकार से है-Three Contributions to the Theory of Sex (1905), Unconscious (1915), Pleasure Principle (1920), The Ego & The Id (1923) आदि। फ्रायड के विचार और रचनाएँ 210वीं शताब्दी के प्रथम चार दशकों तक असामान्य मनोविज्ञान और मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रभावपूर्ण रहीं। समाज विज्ञानों और साहित्य के क्षेत्र में फ्रायड के योगदानों से नये आयाम उत्पन्न हुए। फ्रायड द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व सिद्धान्त मनोविज्ञान का और चिकित्सा मनोविज्ञान का यह पहला व्यापक सिद्धान्त है जिसमें मानव व्यवहार की व्याख्या अतल गहराइयों को स्पर्श करती हुई है। उसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोचिकित्सकीय अध्ययनों के आधार पर किया है।

फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धान्त का उपागम (Approach) गत्यात्मक (Dynamic) है। गतिक उपागम (Dynamic Approach) में यह माना जाता है कि प्राणी वातावरण या परिवेश में (Organism in Environment) है। इस उपागम का अर्थ प्राणी बनाम वातावरण (Organism Vs. Environment) नहीं होता है। इस उपागम में यह माना जाता है कि व्यक्ति की वातावरण के साथ अन्तक्रिया होती है और इसी अन्तक्रिया (Interaction) के आधार पर उसमें दैहिक शीलगुण विकसित होते हैं। 

मनोविश्लेषण का अर्थ (Meaning of Psychoanalysis)

सामान्यतः मनोविश्लेषण के तीन अर्थ हैं--(1) प्रथम स्थान पर यह प्रविधि (Technique) है। इसके माध्यम से एक व्यक्ति के मानसिक जीवन की चेतन और अचेतन गतिशीलता की खोज की जाती है (J. F Brown, 1940)। (2) दूसरे स्थान पर मनोविश्लेषण एक प्रकार की मनोचिकित्सा (Psychotherapy) है जिसके माध्यम से मनःस्ताप, मनोविक्षिप्तता या मनोविकृत रोगियों का पुनर्निर्माण या उपचार इस प्रकार किया जाता है कि वह जीवन की समस्याओं के प्रति बेहतर और सुखी समायोजन कर सके।

(3) तीसरे स्थान पर मनोविज्ञान में मनोविश्लेषण एक सम्प्रदाय (School) है। मनोविश्लेषण को चाहे सम्प्रदाय के रूप में लिया जाये, चाहे चिकित्सा पद्धति अथवा प्रविधि के रूप में लिया जाये। इन सभी क्षेत्रों में फ्रायड का प्रारम्भिक और प्रमुख योगदान है। मनोविश्लेषण चिकित्सा पद्धति के जनक है तथा मनोविश्लेषण सम्प्रदाय के संस्थापक हैं।

फ्रायड के सम्बन्ध में विसकाफ (L. J. Bischof, 1964) ने लिखा है कि, "यद्यपि, फ्रायड ने अपने प्रतिभावान लेखों में किसी भी सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन नहीं किया है, किन्तु आलोचक उसके साहित्य से कुछ ऐसे मौलिक प्रत्ययों को चुन पाता है, जो उसके सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं तथा मानव व्यवहार के संगठनात्मक पक्षों को व्यक्त करते हैं।" प्रस्तुत अध्याय में फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यक्तित्व संरचना, व्यक्तित्व को गतिकी और व्यक्तित्व विकास का वर्णन किया गया है। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद के अन्तर्गत वर्णित सभी विषय सामग्री आती है।

(1) मन का सिद्धान्त और व्यक्तित्व संरचना (Theory of Mind & Personality Structure)

मस्तिष्क के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का केन्द्र मन है। फ्रायड का मन का सिद्धान्त एक प्रकार का परिकल्पनात्मक प्रत्यय (Hypothetical Concept) है। फ्रायड ने मन के मुख्यतः दो भाग बताये हैं

(1) मन का गत्यात्मक पक्ष (Dynamic Aspect of Mind)—मन के इस पक्ष के अन्तर्गत इदं (Id), अहं (Ego) तथा पराअहं (Superega) तीन अंग या संघटक (Components) हैं। 

(2) मन का स्थलाकृतिक पक्ष (Topological Aspect of Mind)-मन के इस पक्ष के अन्तर्गत चेतन (Conscious), अर्धचेतन (Preconscious) तथा अचेतन (Unconscious) तीन अंग या भाग हैं। मन का स्थलाकृतिक पक्ष और मानसिक क्रिया के स्तर (Topologcal Aspect of Mind and Levels of Mental Activity)

फ्रायड ने मन की तुलना आइसबर्ग (Iceberg) समुद्र में तैरती हुई बर्फ को पहाड़ से की है जिसका 9/10 भाग पानी के अन्दर और 1/10 भाग पानी के बाहर रहता है। पानी के अन्दर वाला भाग अचेतन, पानी के बाहर वाला भाग चेतन तथा जो भाग पानी की ऊपरी सतह से स्पर्श करता हुआ होता है, वह अर्धचेतन कहलाता है। फ्रायड का विचार है कि व्यक्ति की विभिन्न मानसिक क्रियाएँ इन्हीं तीन स्तरों पर होती हैं

1. चेतन (Conscious)-फायड के अनुसार, "चेतन मन, मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध तुरन्त ज्ञान से होता है।" वास्तव में चेतन का अर्थ ज्ञान से है। यदि कोई व्यक्ति लिख रहा है तो उसे लिखते की चेतना है। यदि किसी वस्तु को देख रहा है तो उसे देखने की चेतना है। व्यक्ति जिन शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के प्रति जागरूक होता है, वह चेतन स्तर पर घटित होती है। चेतन स्तर पर घटित होने वाली सभी प्रकार की क्रियाओं और प्रक्रियाओं की जानकारी या चेतना व्यक्ति को रहती है। यद्यपि चेतना में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं परन्तु चेतना में निरन्तरता होती है अर्थात कभी लुप्त नहीं होती है।

2. अर्ध चेतन (Preconscious or Foreconscious)- फ्रायड के अनुसार, "यह मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय सामग्री से होता है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार कभी भी याद कर सकता है। मन के इस भाग में वह विषय सामग्री होती है जिसका प्रत्याहान करने से व्यक्ति को प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति जिन अनुभवों को याद करके अपने चेतन मन में लाता है, वह अनुभव मन के इसी भाग में पड़े रहते हैं। सीखने और आदतों से सम्बन्धित सामग्री मन के इसी भाग में एकत्रित रहती है।

3. अचेतन (Unconscious)-फ्रायड के अनुसार, "अचेतन मन, मन का वह भाग है जिसमें ऐसी विषय-सामग्री होती है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार याद करके चेतना में लाना चाहे तो भी नहीं ला सकता है। अचेतन मन में वह विचार, इच्छाएँ और संवेग आदि होते हैं जो 12 दमित होते हैं। मन का यह भाग भी चेतन और अर्ध चेतन की भाँति इस प्रकार का स्टोर हाउस है। इस मन की विषय-सामग्री निष्क्रिय न होकर सक्रिय होती है। यह चेतन मन में आने का प्रयास करती रहती है। कई बार यह रूप बदलकर भी चेतन मन में प्रवेश करती है। अचेतन मन के सम्बन्ध में बाउन (1940) ने लिखा है कि

We all have experienced material which we cannot recall at will, but which may occur to us automatically and which we know is present in our minds through hypnosis and other experimental procedures.

अचेतन मन का प्रत्यय सम्भवतः लिवनिट्ज (Leibnity, 1714) ने प्रस्तुत किया, परन्तु इस प्रत्यय की सर्वप्रथम वैज्ञानिक व्याख्या करने का श्रेय फ्रायड को है। अचेतन मन पर ही फ्रायड का मनोविज्ञान, विशेष रूप से उसकी चिकित्सा पद्धति मनोविश्लेषण पर आधारित है। फ्रायड का विचार है कि जिस प्रकार आइसबर्ग से टकराकर बड़े-बड़े जहाज टूट जाते हैं, उसी प्रकार अचेतन की क्रियाएं यद्यपि दिखायी नहीं देती हैं फिर भी व्यक्तित्व को नष्ट कर सकती हैं या विकृतियाँ उत्पन्न कर सकती हैं। फ्रायड का यह विचार है कि अचेतन मन कामशक्ति (Libido) का स्टोर हाउस है। इगो और सुपरइगो द्वारा सेन्सर की हुई और दमित की हुई इच्छाएँ, विचार, भावनाएँ, प्रेरणाएँ और संवेग आदि इस मन की विषय-सामग्री होते हैं। जो सुखवाद सिद्धान्त से संचालित होता है, वह इस मन का स्टोरकीपर होता है। फ्रायड ने दैनिक जीवन की भूलों, स्वप्न और अभिप्रेरणाओं आदि की व्याख्या अचेतन मन की सामग्री के आधार पर की है। अचेतन मन की फ्रायड के अनुसार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार से है

(1) अचेतन मन की विषय-सामग्री की प्रकृति गत्यात्मक होती है।

(2) अचेतन मन की विषय-सामग्री मानव व्यवहार का महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है।

(3) अचेतन मन की विषय-सामग्री की अभिव्यक्ति स्वप्नों और मानसिक रोगों में होती है। 

(4) अचेतन द्वारा सभी अतृप्त इच्छाओं को स्वीकार कर लिया जाता है। 

(5) अचेतन में निहित सामग्री की अभिव्यक्ति क्रियाओं द्वारा होती है, शब्दों द्वारा नहीं होती है।

(6) अचेतन में तर्क और नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता है। 

(7) अचेतन की सामग्री सुखवाद सिद्धान्त पर आधारित होती है।

(8) अचेतन मन की सामग्री का स्वरूप लैंगिक (Sexual) होता है।

मन के गत्यात्मक पक्ष से सम्बन्ध-मन के गत्यात्मक पक्ष-इड, इगो और सुपरडगो का चेतन, अर्ध-चेतन और अचेतन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह पहले बताया जा चुका है कि चेतन, अचेतन और अर्थ-चेतन मन एक प्रकार के स्टोर हाउस हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के विचार, इच्छाएं, प्रेरणाएं, संवेग और भावनाएं आदि होती हैं। इड, इगो और सुपरइगो के लिए यह स्टोर हाउस कार्यक्षेत्र हैं। इड का कार्यक्षेत्र अचेतन है। इगो मुख्यतः चेतन स्तर पर कार्य करता है। साथ-ही-साथ इसका कुछ कार्य अर्ध-चेतन और अचेतन स्तर पर भी होता है। इड की भाँति सुपरइगो भी चेतन, अर्ध-चेतन और अचेतन स्तर पर कार्य करता है। मन का गत्यात्मक पक्ष और व्यक्तित्व संरचना (Dynamic Aspect of Mind & Personality Structure)

फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व की संरचना इड, इगो और सुपरइगो से होती है। हमेशा व्यक्ति का व्यवहार इन तीन अवस्थाओं (Systems) इड, इगो और सुपरइगो की अन्तक्रियाओं का परिणाम है (Behaviour is nearly always the product of an interactions among these three systems) । हाल और लिण्डजे (G. H. Hall & Lindzy, 1972) के अनुसार इन तीन व्यवस्थाओं में से कोई भी एक व्यवस्था पृथक् रूप से कार्य नहीं करती है। इन तीनों व्यवस्थाओं की अन्तक्रिया इतनी घनिष्ठ होती है कि किसी एक व्यवस्था के मानव जीवन पर प्रभाव का अलग से मूल्यांकन करना कठिन होता है। ब्राउन (1940) ने लिखा है कि

"Freud was the first modern psychologist to attempt a scientific description of the parts of the self or personality and to relate these to both normal and pathologic behaviour. He speak the normal adult as being composed of the Id, Ego and Superego". 

व्यक्तित्व की संरचना समझने के लिए आवश्यक है कि इड, इगो तथा सुपरइगो का सविस्तार अध्ययन किया जाय।

(A) इदम् (ld)

हॉल और लिण्डजे (1972) के अनुसार इड व्यक्तित्व का अत्यन्त अस्पष्ट अगम्य और अव्यवस्थित भाव है (The Id is the obscure, inaccessible and unorganized part of personality) | फ्रायड के अनुसार इड मानसिक जगत या आन्तरिक जगत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी कारण इड को फ्रायड ने वास्तविक मानसिक सत्यता ( True Psychic Reality) कहा है। इसका बाह्य जगत की वास्तविकता से सीधा सम्बन्ध न होकर इड के माध्यम से होता है। इगो (और सुपरडगो) के विकास का आधार इड ही है। इड सुखवाद सिद्धान्त से संचालित होता है।

इड की उत्पत्ति (Origin of Id)

जन्म के समय शरीर की संरचना में जो कुछ भी निहित होता है, वह पूर्णतः इड होता है। दूसरे शब्दों में जन्म के समय मानव शिशु का मन पूर्ण रूप से इड है, अतः इड जन्मजात और वंशानुगत है। इसे फ्रायड ने असंख्य पूर्वजों के स्मृति अवशेषों का भण्डार माना है।

इड की विषय-सामग्री (Contents of the Id) 

तात्कालिक सन्तुष्टि की इच्छाएँ और विचार ही इड की प्रमुख विषय सामग्री है। इड की उपर्युक्त इच्छाओं और विचारों का सम्बन्ध आत्मगत वास्तविकता (Subjective Reality) से होता है। वातावरण को वास्तविकता से इड का कोई भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। हॉल और लिडने (1972) के अनुसार- "इड की विषय-सामग्री अनश्वर (Immortal) है क्योंकि वह सत्यगत प्रभावों से मुक्त है। इड तो न कुछ भूलता है और न ही इसमें कुछ भूतकालीन होता है।" इड का नैतिकता, तार्किकता, समय, स्थान और मूल्यों आदि से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इड व्यक्तित्व का अपेक्षाकृत अधिक चलायमान पक्ष है।

इड के कार्य (Functions of the Id) 

इड का मुख्य कार्य शारीरिक इच्छाओं की सन्तुष्टि है। इड किसी भी प्रकार के तनाव से तात्कालिक छुटकारा पाना चाहता है। तात्कालिक तनाव-निवारण को ही सुखवाद नियम ( Pleasure Principle) कहा गया है। दूसरे शब्दों में इड अपने उद्देश्यों की पूर्ति सुखवाद नियम के आधार पर करता है। सुख की प्राप्ति और दुःख के निवारण हेतु इड के दो प्रकार के कार्य है

(1) सहज क्रियाएँ (Reflex Actions)- सहज क्रियाएँ जन्मजात होती हैं तथा स्वचालित भी होती हैं, उदाहरण के लिए छोकना और पलक झपकना आदि। सभी व्यक्ति सहज क्रियाओं की पूर्ति के बाद सन्तोष का अनुभव करते हैं।

(ii) प्राथमिक क्रियाएँ (Primary Processes) तनाव दूर करने हेतु प्राथमिक प्रक्रियाएँ व्यक्ति के सामने पदार्थ को प्रतिमा निर्मित करती हैं, उदाहरण के लिए एक प्यासे व्यक्ति के सामने पानी की प्रतिमा प्रस्तुत कर उसको प्यास को सन्तुष्टि करना। यहाँ प्रतिमा उपस्थित करना प्राथमिक प्रक्रिया का कार्य है। प्राथमिक प्रक्रियाएँ सभी इच्छित वस्तुओं की प्रतिमाएँ उपस्थित कर व्यक्ति को क्षणिक सन्तुष्टि देती हैं। इस प्रकार इच्छित वस्तु की प्रतिमा के द्वारा सन्तुष्टि इच्छापूर्ति (Wish Fulfilment) कहलाता है।

इच्छापूर्ति एक प्रकार का विभ्रमात्मक (Hallucinatory) अनुभव है। प्यासा व्यक्ति प्यास की प्रतिमा से केवल क्षणिक सन्तुष्टि प्राप्त करता है। स्थायी सन्तुष्टि व्यक्ति Secondary Process द्वारा प्राप्त करता है। इड का एकमात्र मनोवैज्ञानिक कार्य इच्छा उत्पन्न करना है। (The sole psychological function with which the Id is endowed is that of generating wishes.-Hall & Lindzy, 1972) |

(B) अहं (Ego)

फ्रायड का इगो से तात्पर्य आत्म (Self) या चेतन बुद्धि (Conscious Intelligence) है। इगो का सम्बन्ध, एक ओर बाह्य वास्तविकता से होता है तथा दूसरी ओर इड से होता है। यह व्यक्ति की इच्छाओं की सन्तुष्टि सामाजिक और भौतिक वास्तविकता के सन्दर्भ में करता है। यह इड की इच्छाओं और भौतिक जगत की वास्तविकता के मध्य समायोजनकर्ता का कार्य करता है। (It is the adjustor between the wishes of the Id and the demands of physical reality.- J. E. Brown. 1940) । इगो, इड और सुपरइगो के मध्य संयोजनकर्ता का कार्य करता है। 

इगो की उत्पत्ति (Origin of Ego )

शिशु की आयु बढ़ने के साथ-साथ वह वातावरण की वास्तविकताओं की ओर उन्मुख होने लगता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें मेरा और मुझे जैसे प्रत्ययों का अर्थ स्पष्ट होने लगता है। धीरे-धीरे वह समझने लगता है कि कौन-सी वस्तुएँ उसकी हैं और कौन-सी अन्य लोगों की हैं। इगो इड का ही एक विशिष्ट अंश है जो बाह्य वातावरण के प्रभाव के कारण विकसित होता है। चूंकि इड वंशानुगत होता है। अतः वंशानुगत पदार्थों पर वातावरण के प्रभावों के परिणामस्वरूप इगो का विकास होता है। 

इगो और इड में अन्तर और सम्बन्ध (Distinction and Relation between Id & Ego)

इड का सम्बन्ध केवल व्यक्तिगत (Subjective) वास्तविकता से होता है जबकि इगो मन में और बाह्य जगत में उपस्थित वस्तुओं में अन्तर करता है (The Id knows on the subjective reality of the mind. Ego distinguishes between things in the mind in the external world)। दूसरा अन्तर यह है कि इगो को इड से ही शक्ति प्राप्त होती है। इगो इड का ही एक विकसित रूप है, अतः इगो और इड में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इगो इड से ही अपनी शक्ति प्रदान करता है क्योंकि उसमें अपनी कोई शक्ति नहीं होती हैं। इगो का उद्देश्य इड इच्छाओं की पूर्ति करना है, बाधा उपस्थित करना नहीं है। पाठकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि इगो का कोई अलग अस्तित्व नहीं है। यह व्यक्तित्व का केन्द्र है जो इड और बाह्य वातावरण के मध्य तथा इड और सुपरइगो के मध्य संयोजन का कार्य करता है। 

इगो की विषय-सामग्री (Contents of the Ego) बाह्य वातावरण का एकत्रित ज्ञान ही इगो की विषय-सामग्री है।

इगो के कार्य (Functions of the Ego) इगो तर्कसंगत (Logical) होता है तथा इगो दिक्-काल (Space-Time) के सम्बन्ध को जानता है। अतः इसका मुख्य कार्य बाह्य वातावरण के खतरों से जीवन की रक्षा करना है। यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति वास्तविकता के नियम (Reality Principle) के आधार पर करता है। यह पहले बताया जा चुका है कि आवश्यकताओं को वास्तविक पूर्ति से सम्बन्धित प्रक्रिया द्वितीयक प्रक्रिया (Secondary Process) जो इड द्वारा सम्पादित होती है। यह सुख के नियम ( Pleasure Principle) या तात्कालिक तृप्ति का विरोधी नहीं है बल्कि उपयुक्त परिस्थिति के आते ही यह तात्कालिक तृप्ति में सहायता करता है। चूंकि यह व्यक्तित्व का बौद्धिक पक्ष है अतः यह तात्कालिक तृप्ति के लिए उपर्युक्त परिस्थिति को खोजने या उत्पन्न करने का कार्य भी करता है। संक्षेप में, इगो के कुछ प्रमुख कार्य निम्नलिखित प्रकार से हैं

(1) पोषण सम्बन्धी शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करना 

(2) शरीर की सुरक्षा की आवश्यकता की पूर्ति करना।

(3) बाह्य वातावरण की वास्तविकताओं के अनुसार इड के आवेशों को अभिव्यक्त

(4) इड और सुपर इगो की विरोधी इच्छाओं से समायोजन को स्थापित करना। 

(5) नींद की अवस्था में भी यह स्वप्नों पर सेन्सरशिप बनाये रखता है।

(6) बाधा या चिन्ता के उपस्थित होने पर व्यक्तित्व की उपयुक्तता की रक्षा करना है। कई बार इस प्रकार की रक्षा इगो मानसिक मनोरचनाओं Mechanisms) की सहायता से करता है।

(C) सुपरइगो (Superego)

व्यक्तित्व का यह अंश सबसे बाद में विकसित होता है। यह व्यक्तित्व का नैतिक पक्ष है। यह वह मुख्य शक्ति है जो व्यक्ति का समाजीकरण करती है। बिस्काफ (L. J. Bischof, 1964) ने फ्रायड के विचारों को स्पष्ट करते हुए सुपरइगो के सम्बन्ध में लिखा है कि

The superego is the ethical-moral arm of the personality. It makes the decisions whether an activity is good or bad according to the standards of society which it accepts. Social laws mean nothing to it unless it has accepted them and internalized them. 

सुपरइगो की उत्पत्ति (Origin of Superego)

बालक की आयु जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे-वैसे उसका समाजीकरण होता जाता है। धीरे-धीरे वह भले-बुरे में अन्तर समझने लग जाता है। इस समाजीकरण प्रक्रिया में ही बाल्यावस्था में सुपरइगो का विकास इगो से होता है। संक्षेप में, सुपरइगो इगो का ही एक विशिष्ट विकसित रूप है। सुपरइगो के विकास में तादात्म्य (Identification) और अन्तःश्चेपण (Introjection) की मानसिक मनोरचनाएँ सहायक होती हैं। सुपरइगो के दो पक्ष है—(1) आदर्श अहं (Ego Ideal), (2) अन्तरात्मा (Conscience)। आदर्श अहं सुपरइगो का घनात्मक पक्ष है जिसमें समाज और संरक्षकों से सीखी गयी बातें या गुण सम्मिलित होते हैं। आदर्श अहं द्वारा व्यक्ति यह सीखता है कि समाज में क्या उचित है ? अन्तरात्मा सुपरइगो का ऋणात्मक पक्ष है जिसमें संरक्षक और समाज जिन बातों को बुरा समझते हैं, वह अवगुण सम्मिलित होते हैं। अन्तरात्मा द्वारा व्यक्ति यह सीखता है कि समाज में क्या अनुचित है, उसके संरक्षक किन बातों को अनुचित समझते हैं आदि। जब कोई व्यक्ति समाज के आदर्शों और मूल्यों के प्रतिकूल कोई कार्य करता है तो अन्तरात्मा के कारण उसमें चिन्ता और अपराध भावना (Guilt Feeling) उतन्न हो सकती है। 

सुपरइगो के कार्य (Functions of Superego)—वह इगो का ही विकसित किन्तु विभेदित रूप है जो सामाजिकता और नैतिकता का प्रतिनिधित्व करता है। अतः इसके कार्य इड और इगो की अपेक्षा भिन्न हैं। यह इगो के उन सभी कार्यों पर रोक लगाती है जो सामाजिक और नैतिक नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, यह मूलप्रवृत्तियों की सन्तुष्टि को रोकती है। सुपरहगो का इगो के प्रति कार्य और व्यवहार लगभग वैसा ही होता है जैसा एक बच्चे के प्रति माता-पिता का व्यवहार होता है। संक्षेप में सुपरइगों के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं

(1) इड के अनैतिक, सामाजिक और कामुक आवेगों पर रोक लगाना । 

(2) इगो के आवेगों को नैतिक और सामाजिक लक्ष्यों की ओर ले जाने का प्रयास करना।

(3) पूर्ण सामाजिक और आदर्श प्राणी बनाने हेतु प्रयास करना । 

इड इगो और सुपरइगो का पारस्परिक सम्वन्ध (Mutual Relation of Id, Ego and Superego)

यह पहले बताया जा चुका है कि इड, इगो और सुपरङगो से व्यक्तित्व की संरचना होती है। यह तीनों ही इकाइयाँ गतिशील हैं। इन तीनों के सम्बन्ध में ब्राउन (1940) ने लिखा है, -The Id is primary biologically conditioned, the Ego primarily conditioned by the physical environment but the superego is primarily sociologically or culturally conditioned. इड सुख के नियम ( Pleasure Principle) से इगो वकता नियम (Reality Principle) से तथा सुपरइगो निरपेक्ष नियोग (Categorical Imperative) नियम से नियमित होती है।

सामान्य व्यक्तित्व के इन तीनों ही अगों से पर्याप्त मात्रा में सामंजस्य पाया जाता है। इन तीनों इकाइयों में जितना ही पारस्परिक विरोध या खींचातानी होती है, व्यक्ति का व्यक्तित्व उतना ही अधिक असामान्य होता है और उसके व्यक्तित्व का विघटन उतना ही अधिक होता है। सामान्य व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है कि इन तीनों इकाइयों में सामंजस्य और समन्वय बना रहे। जब इन तीनों इकाइयों में से कोई एक अन्य दो की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हो जाती है तो समन्वय और सामजस्य बिगड़ जाता है और विघटन प्रारम्भ हो जाता है। इगो व्यक्तित्व का केन्द्रक (Nucleus) है। यह इड सुपरइगो और वातावरण की वास्तविकताओं के मध्य समन्वय और सामंजस्य बनाकर क्रिया या व्यवहार करता है। 

इड, सुपरइगो और वातावरण की वास्तविकताओं के मध्य इगो जितना ही अधिक सामंजस्य करने की समझ होगी व्यक्ति का व्यक्तित्व उतना ही अधिक स्थायी होगा। फ्रायड के अनुसार समस्त व्यक्तित्व एक इकाई के रूप में कार्य करता है। हॉल और लिंडजे (1972) ने फ्रायड के विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि इड, इगो और सुपरइगो को एक-दूसरे से पृथक करने के बाद भी उन्हें आपस में एक-दूसरे में एकरस (Merge) होते हुए समझना चाहिए (Affer separating them, “We must allow what has been separated to merge again.")

इड, इगो और सुपरइगो के आवेगों को स्पष्ट करने हेतु निम्नलिखित उदाहरण दिया जा सकता है-एक सुनसान सड़क पर एक सुन्दर नवयुवती को देखकर एक नवयुवक के मन में यह विचार आ सकता है कि, "मैं इसे छेडूं, इसका चुम्बन करूं, फिर और कार्यों के लिए भी राजी कर लूँ" इस प्रकार की विचारधारा इड आवेग की अभिव्यक्ति करती है। कुछ ही समय में उस नवयुवक के मन में यह भी विचारधारा उत्पन्न हो सकती है कि नवयुवती को यहाँ छेड़ना और चुम्बन लेना आदि ठीक नहीं है। यदि किसी ने देख लिया तो पिटाई हो जायेगी या पुलिस के हवाले हो जाऊंगा। यह नवयुवती थोड़ी दूर और आगे जाए तो वहाँ कोई नहीं देखेगा, वहाँ इसको छेड़ना अधिक उपयुक्त है। इस प्रकार की विचारधारा वास्तविकता से सम्बन्धित है जिसे इगो की अभिव्यक्ति कह सकते हैं। इसी प्रकार निम्न विचारधारा सुपरइगो का आवेग है-"कुछ समय बाद नवयुवक में यह भी विचार आ सकता है कि किसी लड़की को छेड़ना या चुम्बन लेना बुरी बात है। समाज में इस प्रकार का व्यवहार करना बुरा समझा जाता है। "

जब व्यक्ति की इड प्रबल होती है तो व्यक्ति सुखवादी, स्वार्थी और अनियन्त्रित होता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति में इगो अधिक प्रबल होती है, उस व्यक्ति में, "मैं" की अधिकता होती है। जिस व्यक्ति की सुपरइगो प्रबल होती है, वह व्यक्ति आदर्शवादी होता है। उसमें भले-बुरे का विचार अधिक होता है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि Personality is the function of these three segments as a whole rather than as three separate segments.


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