रूढ़िवादी विचारधारा (Orthodox View)-प्रेतात्मा का तात्पर्य मनुष्य की मृत्यु होने के बाद वायुमण्डल क में रहने वाली उसकी अदृश्य आत्मा से है। माना जाता है कि प्रेतात्मा दो प्रकार की होती है। पहली शुभ प्रेतात्मा और दूसरी अशुभ प्रेतात्मा। यह दोनों ही प्रेतात्माएँ देवों के निर्देशों के अनुसार काम करती थीं। जब देवता किसी व्यक्ति से प्रसन्न होते थे तो वह उसके पास शुभ प्रेतात्माओं को भेज देते थे और जब किसी व्यक्ति से गुस्सा हो जाते थे तो उसके पास अशुभ प्रेतात्माओं को भेज देते थे। अशुभ प्रेतात्माएँ व्यक्ति के शरीर में घुसकर उसे अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित कर देती हैं।
प्राचीन कालीन चिकित्सा पद्धति (Ancient Treatment Method)-मानसिक रोगों के उपचारके लिये प्राचीन काल में कई प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों को अपनाया गया जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
प्लेटो की विचाघारा (429-347 B.C)- व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर प्लेटो ने सामान्य एवं असामान्य व्यक्तित्व में अन्तर बताया। प्लेटो की बात से प्रभावित होकर कालमैन ने अपने विचार व्यक्त करते हुये लिखा है कि, “प्लेटो की विचारधारा में असामान्यता सम्बन्धी आधुनिक प्रभाव के रहते हुये भी वह तत्कालीन र्अन्धविश्वास एवं अज्ञानता से पूरी तरह ऊपर नहीं उठ सका है। यही वजह है कि प्लेटो ने मानसिक रोगों को आंशिक रूप से शारीरिक, नैतिक एवं आंशिक रूप से दैहिक समझा है।"
हिप्पोक्रेटीज की विचारधारा (460-377 B.C.)-हिप्पोक्रेटीज यूनान के एक महान दार्शनिक थे। न हिप्पोक्रेटीज को Father of Medicine के नाम से भी पुकारा जाता है। उनका मानना था कि मानसिक रोग सामान्यता प्राकृतिक कारणों से ही उत्पन्न होते हैं।
हिप्पोक्रेटीज ने तीन श्रेणियों में मानसिक रोगों को बाँटा-1. उन्माद, 2. विषाद रोग, 3. मस्तिष्क शोध।
(1) उन्माद (Mania)--इस प्रकार के रोगी अनियन्त्रित उत्तेजना से पीड़ित रहते हैं। जो लोग इस रोग से ग्रसित होते हैं उनमें अत्यधिक सक्रियता एवं हिंसा देखने को मिलती है।
(2) विषाद रोग (Melancholia) - विषाद रोग में रोगी अवसाद की भावनाएँ पैदा होने लगती हैं। जिसके कारण रोगी अत्यधिक दुःखी, व्याकुल एवं उदास दिखाई पड़ता है।
(3) मस्तिष्क शोध (Pherenitis) - मस्तिष्क शोध के रोगियों में मस्तिष्क से सम्बन्धित विकार उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे-मिर्गी |
अरस्तु की विचारधारा (384-322 B.C.)-प्लेटो द्वारा प्रस्तुत किये गये मानसिक विकारों से अरस्तु सहमत नहीं थे। अरस्तु का मानना था कि मानव शरीर के चारों देह द्रव्यों में असन्तुलन होने से मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं।
मध्यकालीन असामान्य व्यवहार एवं उसका उपचार(TREATMENT OF ABNORMAL BEHAVIOUR IN MIDDLE AGE)
मध्यकाल (Middle Age) (200 A.D. 1500 A.D.)
मध्यकाल को अन्धकार का युग भी कहा जाता है। क्योंकि इस काल में वैज्ञानिक पाबन्दी होने के कारण स्वतन्त्र चिन्तन का प्रादुर्भाव नहीं हुआ। इस काल में प्रत्येक मानसिक रोग का कारण भूत-प्रेत आदि का प्रकोष ही समझा जाता था और इनके उपचार के लिये भी अधिकतर बस एक ही तरीका प्रयोग किया जाता था वो था जादू-टोना जिसके कारण इस काल को पागलपन की वृद्धि का युग भी कहा जाता है। मध्यकाल में सामान्यत: दो प्रकार के पागलपनों की वृद्धि हुई-(1) सामूहिक पागलपन, (2) जादू-टोना।
(1) सामूहिक पागलपन (Mass Madness) - सामूहिक रूप से नृत्य करना, उछलना, कूदना, हँसना, अपने शरीर के वस्त्र आदि फाड़ना जैसी क्रियाएँ सामूहिक पागलपन कहलाती है। इस प्रकार के पागलपन को भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। यूरोप एवं जर्मनी में इसे (Stvitus Dance) तथा इटली (Tarantism) के नाम से जाना जाता है। हिस्टीरिया नामक मानसिक रोग के लक्षणों से ही मिलते-जुलते सामूहिक पागलपन के लक्षण थे। सामूहिक पागलपन के प्रमाण 10वीं से 16वीं शताब्दी तक देखने को मिलते हैं।
(2) जादू-टोना (Witch-Craft) - मध्यकाल में भूत-प्रेत आदि को मानसिक रोगों का मुख्य कारण समझा जाता था और उनके उपचार के लिये चर्चों एवं मठों में, मन्दिरों आदि में जाकर पादरियों एवं पुजारियों से जादू-टोना करवाया जाता था। यहाँ पहले रोगियों का उपचार मानवीय आधारों पर किया जाता था। मानवीय उपचारों से अगर रोगी ठीक नहीं होता था तो जिसमें उसे अनेक प्रकार की चीजों जैसे-गर्म सलाखें उसके शरीर पर मारना, जंजीरों से बाँधना, मारना आदि से बुरी तरह प्रताड़ित किया जाता था। इस तरह के कार्य करने के पीछे मनुष्यों का यह सोचना होता था कि भूत प्रेत इस व्यक्ति के अन्दर है वह डर कर इसके शरीर को छोड़ देंगे और वह व्यक्ति ठीक हो जायेगा।
वैज्ञानिक पुर्नजागरण का युग (THE AGE OF SCIENTIFIC RENAISSANCE)
16वीं शताब्दी में मध्यकाल के अन्धविश्वास और अन्धी परम्पराओं का अन्त हुआ था तथा एक नयी वैज्ञानिक परम्परा का उदय हुआ था। इसलिये इस शताब्दी को पुर्नजागरण काल भी कहा जाता है। इस शताब्दी में यूरोप के कई वैज्ञानिकों ने मानिसक रोगों के मनोवैज्ञानिक कारणों की खोज की तथा उसके उपचार के वैज्ञानिक ढंग भी बताये।
मानसिक रोगों की चिकित्सा की दशा में 18वीं शताब्दी में फिलिप, पिनेल, जन एस्कयूरल, विलियम ड्यूक, बेन्जामिन रश आदि विद्वानों के नाम प्रमुख हैं। इस युग में मुख्य रूप से दो दृष्टिकोण देखने को मिलते है—(1) दैहिक दृष्टिकोण, (2) मनोजात दृष्टिकोण
(1) दैहिक दृष्टिकोण (Somatic Point of View)- हॉलैण्ड, ग्रिजिगर, क्रेपलिन प्रमुख विद्वान थे। इन विद्वानों का मानना था कि मानसिक रोगों का मूल विकार है। क्रेपलिन का नाम इस सम्बन्ध में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। उन्होंने Pathology of Brain नामक अलग बाँटा। उनका मानना था कि असामान्य की श्रेणी में चारित्रिक दोष, मादक द्रव्य व्यसन भी आते हैं तथा इनकी चिकित्सा मनोवैज्ञानिक ढंग से की जानी चाहिये। कॉलमैन ने कहा सन् 1915 तक आंगिक दृष्टिकोण अपनी चरम सीमा पर था। कॉलमैन के दृष्टिकोण के बाद ही मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का शुभारम्भ हुआ।
(2) मनोजात दृष्टिकोण (Psychogenic Point of View)-मनोजात दृष्टिकोण के क्षेत्र में सबसे पहले ऐन्टन मेस्मर ने महत्वपूर्ण कार्य किया। मनोजात दृष्टिकोण के अनुसार मानसिक रोगी का कारण मनोवैज्ञानिक होता है। ऐन्टन मेस्मर ने मैक्सवेल द्वारा बनाए गये चुम्बकीय चिकित्सा सिद्धान्त के स्थान पर मेस्मेरिज्म चिकित्सा सिद्धान्त की स्थापना की। यह उपचार पद्धति इस सिद्धान्त पर आधारित की गई थी कि व्यक्ति के शरीर में उपस्थित रहने वाली चुम्बकीय मात्रा के क्रय होने पर मानसिक रोग होते हैं। मनोजात दृष्टिकोण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान जेम्स ब्रेड, ली बाल आदि का है।
आधुनिक युग (Modern Age) - असामान्य मनोविज्ञान के आधुनिक युग का समय 1856 से 1939 तक माना जाता है तथा सिगमण्ड फ्रायड इसके जनक कहे जाते हैं। फ्रायड सामान्यतः एक न्यूरोफिजिशियन थे तथा वह कुछ अलग तरह के रोगियों से मिले तथा उनके प्रति आकर्षित हुये जो बिना किसी तरह की शारीरिक विकृति के शारीरिक रूप से बीमार थे। उनसे मिलकर फ्रायड ने उनके बारे अध्ययन शुरू किया। फ्रायड मनोविश्लेषणवाद के जन्मदाता हैं। उन्होंने इस सिद्धानत के आधार पर असामान्यता के गत्यात्मक पक्ष का अध्ययन किया तथा चिकित्सा हेतु Free Association Technique को प्रस्तुत किया।
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